भारतीय पत्रकारिता का उद्भव, विकास, चुनौतियाँ
भारतीय पत्रकारिता का उद्भव, विकास, चुनौतियाँ
भारतीय पत्रकारिता, मात्र सूचनाओं के आदान-प्रदान का माध्यम न होकर, सदियों से सामाजिक जागरण, जनचेतना के प्रसार और राष्ट्र निर्माण का एक शक्तिशाली उपकरण रही है। इसकी आधारशिला सत्य की अनवरत खोज, जनहित के प्रति अटूट चिंता और सत्ता के समक्ष निर्भीकता से प्रश्न उठाने के अटूट साहस पर टिकी रही है। भारत में पत्रकारिता का पहला अंकुरण औपनिवेशिक शासन के दौरान हुआ। जनवरी 29, 1780 को जेम्स ऑगस्टस हिकी द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित ‘हिकीज़ बंगाल गज़ट’ या ‘कलकत्ता जनरल एडवरटाइज़र’ ने इस नए युग का सूत्रपात किया। हिकी ने अपने पत्र को “A weekly political and commercial paper open to all parties but influenced by none” घोषित करते हुए निष्पक्षता और निर्भीकता का एक प्रारंभिक आदर्श स्थापित किया। उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की भ्रष्ट नीतियों, विशेष रूप से गवर्नर-जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स की कड़ी आलोचना की, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें सत्ता के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा। साल 1782 में उनका प्रेस जब्त कर लिया गया और उन्हें कारावास हुआ। यद्यपि हिकी का साहसिक प्रयास केवल दो वर्षों तक ही जीवित रह सका, लेकिन इसने भारतीय पत्रकारिता के लिए एक स्वतंत्र और जनपक्षधर नींव रखने का एक युगांतरकारी कार्य किया।
विभिन्न भाषाओं में पत्रकारिता का उदय: अंग्रेजी के बाद, भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का विकास राष्ट्रीय चेतना के उदय के साथ गहराई से जुड़ा हुआ था।
• हिंदी पत्रकारिता: 30 मई 1826 को कोलकाता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा प्रकाशित ‘उदंत मार्तंड’ (‘समाचारों का सूर्योदय’) हिंदी पत्रकारिता का प्रस्थान बिंदु बना। संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली में प्रकाशित यह साप्ताहिक पत्र उस युग की नवजागरण की भावना का प्रतीक था। अपनी प्रसिद्ध उद्घोषणा, “इस पत्र में जो कुछ कहा जाएगा, वह सत्य पर आधारित होगा,” के बावजूद, वित्तीय बाधाओं और सरकारी उदासीनता के कारण यह अल्पजीवी रहा। फिर भी, इसने हिंदी पत्रकारिता की नींव डाली और 30 मई को आज भी ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
• बंगाली पत्रकारिता: ‘समाचार दर्पण’ (1818) और ‘संवाद कौमुदी’ (1821) जैसे बंगाली पत्रों ने सामाजिक सुधार आंदोलनों और राष्ट्रवादी विचारों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने इन पत्रों का सक्रिय रूप से उपयोग किया।
• मराठी पत्रकारिता: बाल गंगाधर तिलक के ‘केसरी’ (मराठी) और ‘मराठा’ (अंग्रेजी) ने स्वदेशी आंदोलन और पूर्ण स्वराज की मांग को जन-जन तक पहुँचाया। उनकी ओजस्वी लेखनी ने लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
• अन्य भाषाएँ: तमिल में ‘स्वदेशमित्रन’ (1882), मलयालम में ‘स्वदेशाभिमानी’ (1905) और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के पत्रों ने भी स्थानीय स्तर पर राष्ट्रवादी भावनाओं को मजबूत करने और सामाजिक मुद्दों को उठाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की मशाल: उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दौरान, जब भारत ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था, तब पत्रकारिता ने जनमानस को जागृत करने, राष्ट्रीय एकता की भावना को मजबूत करने और स्वतंत्रता आंदोलन को एक सुसंगठित दिशा प्रदान करने में एक केंद्रीय भूमिका निभाई।
• महात्मा गांधी के ‘यंग इंडिया’, ‘हरिजन’ और ‘नवजीवन’: ये पत्र गांधीवादी विचारधारा, सत्याग्रह के दर्शन और नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीति के शक्तिशाली वाहक बने। गांधीजी ने इन माध्यमों का उपयोग न केवल राजनीतिक संदेश फैलाने के लिए किया, बल्कि सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता पैदा करने और जनसंपर्क स्थापित करने के लिए भी किया।
• मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के ‘अल-हिलाल’ और ‘अल-बलाग़’: इन पत्रों ने मुस्लिम समुदाय के बीच राष्ट्रवादी चेतना का संचार किया और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया। आज़ाद ने सांप्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता पर जोर दिया।
• बाल गंगाधर तिलक के ‘केसरी’ और ‘मराठा’: इन पत्रों ने न केवल ब्रिटिश सरकार की नीतियों की तीखी आलोचना की, बल्कि स्वदेशी आंदोलन, बहिष्कार और पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता की अवधारणा को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तिलक की उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा ने युवाओं को अत्यधिक प्रभावित किया।
• भगत सिंह और उनके साथियों के ‘किरती’ और ‘प्रताप’: इन पत्रों ने ब्रिटिश हुकूमत की मुखर आलोचना करते हुए क्रांतिकारी समाजवाद की विचारधारा का प्रचार किया और युवाओं को बलिदान के लिए प्रेरित किया। उनकी लेखनी में अन्याय के खिलाफ तीव्र आक्रोश और पूर्ण स्वतंत्रता की अटूट इच्छाशक्ति दिखाई देती थी।
ब्रिटिश दमन और प्रेस का प्रतिरोध: ब्रिटिश सरकार ने भारतीय पत्रकारिता की बढ़ती शक्ति को कुचलने के लिए कई कठोर और दमनकारी कानून लागू किए:
• वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट 1878: इस कुख्यात कानून का उद्देश्य भारतीय भाषाओं के पत्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना था। इसके तहत सरकार को किसी भी ऐसे पत्र के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार मिल गया था जिसे वह राजद्रोहात्मक मानती थी।
• प्रेस एक्ट 1910: इस अधिनियम के तहत पत्रों से भारी जमानत राशि की मांग की गई और सरकार की पूर्व स्वीकृति के बिना आपत्तिजनक सामग्री प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसने प्रेस की स्वतंत्रता को गंभीर रूप से सीमित कर दिया।
• इन दमनकारी नीतियों के बावजूद, भारतीय पत्रकारों ने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उन्होंने अपनी लेखनी को स्वतंत्रता संग्राम की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर दिया, जोखिम उठाते हुए भी सत्य और जनहित की आवाज बुलंद करते रहे।
स्वतंत्रता के बाद आकर्षण, विस्तार और चुनौतियाँ: स्वतंत्रता के बाद, जैसे-जैसे भारत में लोकतांत्रिक संस्थाएँ मजबूत हुईं, पत्रकारिता एक प्रभावशाली और सम्मानित पेशे के रूप में उभरी। प्रेस की शक्ति, समाज में उसकी प्रतिष्ठा और लोकतंत्र में उसकी चौथी स्तंभ की भूमिका के चलते, पत्रकारिता युवाओं के लिए एक आकर्षक करियर विकल्प बन गई। तकनीकी विकास, विशेष रूप से टेलीविजन और डिजिटल प्लेटफॉर्म के आगमन ने इस आकर्षण को और बढ़ाया, जिससे मीडिया परिदृश्य का तेजी से विस्तार हुआ। रेडियो ने भी सूचना और मनोरंजन के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
• विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं का उदय और पत्रकारिता: स्वतंत्रता के बाद भारतीय पत्रकारिता विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के साथ विकसित हुई। वामपंथी, दक्षिणपंथी और उदारवादी विचारों वाले समाचार पत्रों और पत्रिकाओं ने सार्वजनिक बहस को आकार दिया।
• आपातकाल में पत्रकारिता की भूमिका: 1975-77 के आपातकाल के दौरान भारतीय पत्रकारिता को अपनी सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। प्रेस की स्वतंत्रता पर कठोर प्रतिबंध लगाए गए, और कई पत्रकारों ने सरकार के दमन का विरोध करते हुए साहस का परिचय दिया।
• आर्थिक उदारीकरण का प्रभाव: 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद, मीडिया उद्योग में निजी निवेश में भारी वृद्धि हुई। इसने मीडिया के विस्तार और विविधता में योगदान दिया, लेकिन व्यावसायिक हितों और लाभ-उन्मुख दृष्टिकोण को भी बढ़ावा दिया।
• क्षेत्रीय पत्रकारिता का विकास: स्वतंत्रता के बाद क्षेत्रीय भाषाओं की पत्रकारिता का भी तेजी से विकास हुआ। स्थानीय समाचार पत्र और टेलीविजन चैनल आम लोगों तक पहुँचने और स्थानीय मुद्दों को उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
• टेलीविजन पत्रकारिता का उदय: 1990 के दशक में निजी टेलीविजन चैनलों के आगमन ने समाचारों के प्रसारण और प्रस्तुति के तरीके में क्रांति ला दी। इसने त्वरित और दृश्य-आधारित रिपोर्टिंग को बढ़ावा दिया, लेकिन सनसनीखेज खबरों पर ध्यान केंद्रित करने की प्रवृत्ति भी बढ़ी।
• डिजिटल पत्रकारिता का विस्फोट: 21वीं सदी में इंटरनेट और सोशल मीडिया के प्रसार ने पत्रकारिता के स्वरूप को पूरी तरह से बदल दिया है। ऑनलाइन समाचार पोर्टल, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और नागरिक पत्रकारिता ने सूचना के प्रसार के नए रास्ते खोले हैं, लेकिन फेक न्यूज़ और गलत सूचना की चुनौती भी पैदा की है।
गिरती साख और वर्तमान संकट: हालांकि पत्रकारिता का आकर्षण और विस्तार हुआ है, लेकिन हाल के वर्षों में इसकी साख में गिरावट आई है। इसके कई कारण हैं:
• पेड न्यूज़ और कॉर्पोरेट प्रभाव: कुछ मीडिया संस्थानों पर राजनीतिक दलों और कॉर्पोरेट समूहों से वित्तीय लाभ लेकर पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग करने के आरोप लगे हैं। पेड न्यूज़ की समस्या ने पत्रकारिता की निष्पक्षता और विश्वसनीयता को गंभीर नुकसान पहुँचाया है।
• राजनीतिक दबाव और ध्रुवीकरण: राजनीतिक दलों का मीडिया पर दबाव बढ़ रहा है, जिससे खबरों का चयन और प्रस्तुति प्रभावित हो रही है। पत्रकारिता तेजी से ध्रुवीकृत हो रही है, जहाँ विभिन्न मीडिया संस्थान अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं का समर्थन करते हुए दिखाई देते हैं।
• सनसनीखेज रिपोर्टिंग और तथ्यों की अनदेखी: प्रतिस्पर्धा के दबाव में, कुछ मीडिया संस्थान टीआरपी और व्यूज बढ़ाने के लिए सनसनीखेज खबरों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं और तथ्यों की गहन जांच की अनदेखी करते हैं।
• ‘झोलाछाप पत्रकारिता’ का उदय: सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्मों के प्रसार के कारण, बिना किसी प्रशिक्षण या पेशेवर नैतिकता की समझ के लोग भी खुद को पत्रकार घोषित करने लगे हैं। ये ‘झोलाछाप पत्रकार’ अक्सर अफवाहें फैलाते हैं, गलत सूचना देते हैं और पत्रकारिता के नैतिक मानकों का उल्लंघन करते हैं, जिससे पूरे पेशे की साख पर आंच आती है।
• मीडिया स्वामित्व का केंद्रीकरण: कुछ बड़े मीडिया समूहों का प्रभुत्व बढ़ रहा है, जिससे मीडिया की विविधता और स्वतंत्र आवाजों की उपस्थिति कम हो रही है।
परंपरा, आज की दिशा और भविष्य: हिकी और जुगल किशोर जैसे दूरदर्शी अग्रदूतों ने भारतीय पत्रकारिता की जो नींव रखी थी, वह स्वतंत्रता संग्राम की उथल-पुथल भरी लहरों में एक मजबूत वटवृक्ष के रूप में विकसित हुई। उस दौर में पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं, बल्कि सत्य कहने, जनमत को आकार देने और राष्ट्र की आत्मा को आवाज देने का एक पवित्र मिशन थी। आज, जब पत्रकारिता डिजिटल माध्यमों, सोशल मीडिया की अराजकता और बाजारवादी दबावों के एक जटिल दौर से गुजर रही है, तब यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि हम पत्रकारिता के उन मूलभूत मूल्यों—सत्य, साहस, निष्पक्षता और जनसेवा—को फिर से अपने केंद्र में स्थापित करें। अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है: क्या हम उस आदर्श पत्रकारिता की पुनर्प्रतिष्ठा कर सकते हैं, या यह सिर्फ इतिहास के पन्नों की एक गौरवशाली धरोहर बनकर रह जाएगी? भविष्य की पत्रकारिता को इन चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी विश्वसनीयता और सामाजिक जिम्मेदारी को फिर से स्थापित करना होगा। इसके लिए पत्रकारों को उच्च नैतिक मानकों का पालन करना, तथ्यों की गहन जांच करना और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर रिपोर्टिंग करना होगा। मीडिया संस्थानों को भी स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता को बढ़ावा देने के लिए एक स्वस्थ माहौल बनाना होगा।