*लघुकथा: "गुनगुनी सी ज़िंदगी"*
“गुनगुनी सी ज़िंदगी”
जनवरी की सुबह थी। हल्की-हल्की धूप छत पर बिछी हुई चटाई पर सुनहरी चादर की तरह फैली हुई थी। हवा में अब भी सर्दी का असर था, पर धूप में बैठते ही जैसे एक पुराना सा अपनापन महसूस होता था।
सावित्री देवी रोज़ की तरह उठीं, पूजा की, तुलसी में जल डाला, और रसोई में जाकर अपने लिए अदरक और तुलसी वाली चाय बनाई। पुराने स्टील के केतली में उबलती चाय की खुशबू पूरे घर में फैल गई। उन्होंने दो कप बनाए — एक अपने लिए, और दूसरा यूँ ही… शायद आदत थी।
वो छत पर आईं, कुर्सी पर बैठीं, और एक लंबी साँस ली — जैसे शहर की हलचल से बहुत दूर कोई शांत पहाड़ी गाँव हो।
छोटे-छोटे गमले उनके आसपास रखे थे — मनीप्लांट, तुलसी, कुछ गुलदाउदी के फूल। गोद में नारंगी ऊन और आधा बुना स्वेटर। उन्होंने बुनी हुई कुछ पुरानी पंक्तियाँ दोहराईं — “सुन ले बेटा… हर टांका सिर्फ ऊन नहीं जोड़ता, रिश्ते भी सीती हूँ मैं…”
नीचे उनका बेटा अभय अपने काम में लगा था। वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता था, वर्क फ्रॉम होम के कारण उसका दिन अब स्क्रीन और कॉल्स में बीतता था।
कभी वो चाय को भूल जाता, कभी खाना दोपहर में भी नहीं खाता। माँ देखती रहतीं, कुछ कहती नहीं थीं।
पर जब-जब उसके चेहरे पर तनाव, झुँझलाहट या थकावट देखतीं, तो बस चुपचाप खिड़की के बाहर की धूप की ओर देखने लगतीं —
“काश, ये गुनगुनी धूप बेटे के मन में भी थोड़ी उतर जाए।”
एक दिन शाम को अभय ने छत पर मां को देखा। वही दिनचर्या — बुना हुआ स्वेटर, एक प्याली चाय, और बहुत शांति।
वो खुद थका हुआ था, पर जाने क्यों, उस दिन वहां जाकर बैठ गया। मां चौंकीं, पर फिर मुस्कुरा दीं।
“चाय लाऊं?” उन्होंने पूछा।
“मैं बना लाता हूं,” अभय ने कहा — और शायद पहली बार इतने सालों में।
जब चाय लेकर लौटा, मां ने धीरे से पूछा —
“बोलो, क्या चल रहा है?”
वो बस चुप रहा… फिर धीरे से बोला,
“मां, मैं थक गया हूं… जैसे सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं है।”
सावित्री ने उसकी ओर देखा, कुछ देर चुप रहीं और फिर धीरे से बोलीं —
“तुम वो सब कमा रहे हो जो ज़रूरत है, लेकिन भूल रहे हो वो जीना जो ज़िंदगी है। ये जो सुबह की धूप है, ये जो चाय की चुस्की है, ये गुनगुनी सी ज़िंदगी… इसे जीना सीख लो। बहुत लंबा नहीं होता वक्त… न रिश्ते, न लम्हें।”
उस रात पहली बार अभय ने फोन दूर रख दिया। अलार्म थोड़ा जल्दी लगाया और अगली सुबह मां के साथ छत पर धूप में बैठा।
धीरे-धीरे ये आदत बन गई। सुबह की एक प्याली चाय, थोड़ी देर बिना फोन के बातें, और स्वेटर में गिरते धूप के कण।
अब अभय के हर दिन में एक छोटा सा ठहराव था — सुकून का, माँ का, और उस गुनगुनी सी ज़िंदगी का जो कभी उसके आसपास थी, पर अब जाकर उसके भीतर उतर रही थी। वही गुनगुनी सी ज़िंदगी…
®® डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”