सांप्रदायिक कट्टरता या संस्कृति का पालन
आम बोलचाल की भाषा में जिसे लोग कट्टरता कहते हैं असल में वो अपने धर्म संप्रदाय द्वारा बनाए गए रीति रिवाज और नियमों का पालन करना है। दूसरी भाषा में ऐसा भी कहा जा सकता है कि, व्यक्ति द्वारा अपने धर्म के नियमों, रीति रिवाज का दृढ़ता पूर्वक पालन करना ही कट्टरता कहलाता है।
इसे उदाहरण से समझना अधिक उचित होगा। जैसे हिंदू सनातन धर्म में विवाह के बाद स्त्री को घूंघट में रहने को कहा जाता है। ऐसी मान्यता, संस्कार व रिवाज है कि ससुराल में बड़ों को सम्मान देने के लिए बहू का हमेशा घुंघट में रहना जरूरी है। इस तरह सनातन संस्कृति का एक और रिवाज है कि हर व्यक्ति अपने जीवन को चार वर्णों के आधार पर जिए। जनेऊ पहने। ईश्वर को भोग लगाकर ही अन्न ग्रहण करें। पर स्त्री को अपनी माता या बहन की दृष्टि से देखें। ब्रह्मचर्य का पालन करें। सुबह शाम ईश्वर की पूजा, स्तुति, वंदना करें। अगर कोई व्यक्ति दृढ़ता से इन रीति रिवाज का पालन करता है तो यह कह सकते हैं कि वह कट्टर सनातनी है। कभी-कभी ऐसी विचारधारा के लोग अपने साथ-साथ दूसरों को भी इन नियमों का पालन करने के लिए बाध्य करते हैं। ऐसे लोग को कट्टर सनातनी कहा जा सकता है।
पर होता क्या है कि ऐसे लोगों को कट्टर सनातनी कहने की बजाय साधु, संत और महात्मा की संज्ञा दी जाती है अब सवाल यह खड़ा होता है कि जब किसी दूसरी विचारधारा के लोग अपने नियमों, संस्कृति, संस्कारों और रीति-रिवाज का दृढ़ता से पालन करते हैं। तो उन्हें कट्टर कहा जाता है तो सनातन नियमों, संस्कृति , संस्कार और रीति-रिवाज और विचारधारा का दृढ़ता से पालन करने वाले को संत ,महात्मा या साधु क्यों कहा जाता है? कट्टर क्यों नहीं कहा जाता।
कहीं ऐसा तो नहीं की कट्टरता को भी हिंसा से जोड़कर देखा जाता है। और जो अपने संप्रदाय से जुड़े नियमों , विचारधारा , संस्कार रीती-रिवाज को दूसरों से बलपूर्वक पालन करवाने के लिए बाध्य करता है ,या फिर हिंसा का प्रयोग करता है। तो ऐसे लोगों को कट्टर कहा जाता है।
स्वरचित मौलिक रचना
दिव्यांजली वर्मा अयोध्या उत्तर प्रदेश