दौड़ लगाते पाँवों पर सड़कें भी हैरा करती थीं
दौड़ लगाते पाँवों पर सड़कें भी हैरा करती थीं
कहाँ गईं वो शामें जो सूरज संग पैरा करती थीं।
रब न करें ऐसी पाओ जिंदगी जो मुझको मिली
लगता है कि मैं ‘दश्त ए सहरा’ भरती थी ।
जुर्म तो मेरा पता ही नहीं जिसकी सज़ा मिली
झूठ की तख़्तों ताज में,सच अखरा करती थी।
टुकड़े-टुकड़े,बँटते-बंँटते ख़ुद के भी ना हो पाए
धज्जी-धज्जी रिश्ते देखे, खुशियांँ पहरा करती थी।
कतरा-कतरा अश्कों से समंदर सारा खारा पाया
केसर के फूलों से घाटी महका करती थी।
मंजुला श्रीवास्तवा
16/5/25