*करना ही होगा*
लेखक – डॉ अरुण कुमार शास्त्री
विषय – युद्ध
विधा – स्वछंद काव्य
शीर्षक – करना ही होगा
नहीं चाहता मैं कोई युद्ध , अपितु सुनता कौन ?
नौचने लगते हैं जब मैं हो जाता प्रत्यक्त ।
मुझे पैदा होने से ही सिखाया गया , शांति का मार्ग ।
पंचशील का मार्ग न्याय का रास्ता और शांति का पाठ ।
लेकिन ये मात्र मेरे लिए था तुम्हारे लिए नहीं ।
तुम चाहते सम्पूर्ण विश्व पर निरंकुश राज्य एकछत्र ।
मुझे बोलते कायर , निर्बल , अशक्त और अपाहिज ।
श्री कृष्ण ने भी गीता में दिया उपदेश – युद्ध कर ही अर्जुन ।
नहीं चाहता मैं कोई युद्ध , अपितु सुनता कौन ?
नौचने लगते हैं जब मैं हो जाता प्रत्यक्त ।
मैं आज तक नहीं समझ पाया इस जगत की माया ।
बल को भी जिसने सभी गुणों में सबसे ऊपर पाया ।
शक्ति के उपासक के लिए कमजोर का स्थान अनित्य हुआ ।
जो ठहर सका , झेल सका आंधी , तूफान , वही बस नित्य हुआ ।
बल , बुद्धि का मानो इस दुनिया में शक्ति से सीधा समवाय संबंध हुआ ।
श्री कृष्ण ने भी गीता में था – अर्जुन को युद्ध करने का आदेश दिया ।
मैंने पूँछा माता से पिता से अपने अग्रज से और गुरु जन से इस बारे ।
क्या युद्ध ही एक मात्र विकल्प होता है ,
खड़ा रहे सम्मान और स्वाभिमान जिसके सहारे ?
मूक रहे थे वे , कुछ न कह पाये , झेला था उन्होंने भी दारुण दुख ,
जब चुना था युद्ध के विषय में रहना चुप ।
जब देखे थे सगे संबंधियों के निष्प्राण शव ।
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