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15 May 2025 · 7 min read

बहरे हिन्द में गज़लें

तुमने मुझे “आई लव यू “बोला
रास्ता यूँ मेरी तबाही का खोला ।

बेवकूफ ही समझा है क्या तुमने
मैं हूँ शातिर पर दिखता हूं भोला ।

तेरी ये अदाएं तुझे हो मुबारक
दिल मेरा कभी किसी पे न डोला ।

सीधे-सीधे मुद्दे की बात कर तू
न हूँ मैं मजनूँ,न है तू मेरी लैला ।

जिस्मों की ज़कात करते हो तुम
कभी क्या तूने है मन को टटोला।
-अजय प्रसाद

फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22

अफसाने में हूँ किरदार की तरह
मंडी में हूँ मैं खरीदार की तरह ।

अहमियत बस उतनी है घर में
जैसे चौखटऔर द्वार की तरह ।

कोई मेरे बराबर है ही कहाँ
मैं हूँ चीन की दीवार की तरह ।

वादा करके भूल गए हैं वो
हैं सनम भी सरकार की तरह ।

क्या कहें अजय अब तुम से भी
हैसियत में हो बेगार की तरह ।
-अजय प्रसाद

फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22 22 22 22

आईये सुन लें ज़रा बाबा लालची जी का प्रवचन
एंट्री तो फ्री है मगर दान में लें तें हैं मोटी रकम ।

साधना,त्याग, तपस्या में सारी उम्र है दी गुज़ार
कन्याएं करतीं हैं अब इनका शुद्ध मनोरंजन ।

‘मोह माया में मत फसना तू ए इन्सान’,कहतें हैं
इस कीमती ज्ञान के बदले में लेंतें है भक्तों से धन ।

आलिशान कमरे में रहतें एशो आराम के साथ
कहतें हैं दुनिया को ये है मेरा छोटा सा आश्रम ।

जाने कितने कर चुके ये चमत्कार हैं किसे क्या पता
है दुनियाभर के भ्रष्टों से तो इनका गहरा रीलेशन ।

क्यों न आप को भी मिलवा दूँ ऐसे ही महात्मा से
इसलिए अजय से लिखवाया है ये इंट्रोडक्शन ।
-अजय प्रसाद

बहर-ए-ज़मज़मा मुतदारिक मुसद्दस मुज़ाफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22 22 22
हाँ बदल चुके हैं हालात हुजूर अब तो मानिये
है नहीं आप में वो बात हुजूर अब तो मानिये ।

जग गए हैं लोग अब अपने गफ़लत की नींद से
और ढल चुकी है रात हुजूर अब तो मानिये ।

मज़हब और मुहब्बत में भी रखतें हैं मायने
अब खोखले ये ज़ज्बात हुजूर अब तो मानिये।

बदला है वक्त भी और बदल गए हैं अब लोग
काबू में नहीं हालात हुजूर अब तो मानिये।

लूटे गा महफिल और वो भी सादगी के साथ
है कहाँ अजय की बिसात हुजूर अब तो मानिये।
-अजय प्रसाद

बहर-ए-हिन्दी मुतकारिब इसरम मक़बूज़ महज़ूफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22 22
चिंता है उन्हें जो GDP के गिर जाने का
मिल गया है मुद्दा दिल बहलाने का ।

हैं पक्ष और विपक्ष दोनो गिरे हुए
चिंता है मगर बस कुर्सी उठाने का ।

एक से बढ़ कर एक हैं अर्थशास्त्रि
काम ,न्यूज़ चैनलों पे चिल्लाने का ।

कोई है बताता अकड़ कर आकड़े भी
कोई कहता वक्त नहीं घबड़ाने का ।

उलझन में उलझी है जनता जनार्दन
क्या पता है कब अच्छे दिन आने का ।

क्यों ज्यादा बकबक करते हो तुम अजय
क्या ठेका लिया है देश चलाने का।
-अजय प्रसाद

अपनी गज़लें ही तो मैं सुना रहा हूँ
क्या मैं आपका का कुछ हथिया रहा हूँ ?

कहतें हैं आप कि मैं रहूँ कायदे से
मैं कहाँ शायरी से पैसे कमा रहा हूँ ।

रोजी-रोटी के लिए तो नौकरी ही है
मैं क्या शाईरी के घर चला रहा हूँ ।

मै क्यों आपकी महफिल में जाऊँगा
मैं तो बस फेसबुक पर ही आ रहा हूँ ।

मेरी गज़लों को बुरा कहने वालों
तुम पर भी मैं फूल ही वर्षा रहा हूँ ।
-अजय प्रसाद

बहर-ए-हिन्दी मुतकारिब मुसद्दस मुज़ाफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़े
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‘वो’ जिनके नाम से तुम शायरी सुनाते हो
क्या सचमुच तुम इतना प्यार जताते हो।

प्यार कभी शब्दों में वयां होता है क्या
फ़िर क्योंकर भला खुद पर इतराते हो।

तारीफ़ तन-बदन तक सीमित रहता है
तो रिश्ता रूह का है क्यों बतलाते हो ।

फिदा हो जाते हो फक़त उसकी अदाओं पर
खुबसूरती पे उसके मर मिट जाते हो।

प्यार हक़ीक़त में तुमने तो किया ही नहीं
बस ज़िसमानी चाहत में डूब जाते हो ।

अव्यक्त प्रेम सर्बोत्तम है जान लो तुम
खामोशी से ही तुम जिसको निभाते हो
-अजय प्रसाद

यूहीं खयाली पुलाओ पका रहा हूँ मैं
उम्मीदों के अलाव जला रहा हूँ मैं ।

देके तकलीफ़ों को तसल्ली दिल से
खुद को ही बेवकूफ बना रहा हूँ मैं।

अब है आपकी मर्ज़ी माने न माने
बस सच से रूबरू करा रहा हूँ मैं।

खुद वक्त ही बदल देता है सबको
वक्त से पहले ही ये बता रहा हूँ मैं।

मेरा क्या है आज हूँ ज़िंदा तो बस
आंधियों में चराग जला रहा हूँ मैं ।

जाने क्या सोंचता है अजय खुद को ही
बस ये बात उस को समझा रहा हूँ मैं।
-अजय प्रसाद

बहर-ए-हिन्दी मुतकारिब मुसद्दस मुज़ाफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़े

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कातर नजरों को मैंने कातिल बना दिया
मझधार को ही उसने साहिल समझ लिया ।

यूँ डूबे हम भंवरों में ,की लहरें लरज उठी
खुद को ही जानबूझ के जाहिल बना दिया ।

नाखुदा की नाराज़गी का तो हूँ मैं कायल
किश्ती को खाली कर किनारे लगा दिया।

अच्छा है कि चलो किसी काम तो आया मैं
उनकी तोहमतों का निशाना बना दिया ।

तुम भी तो अजय आखिर बेवफा ही निकले
दिल को ही रंजोगम का ठिकाना बना दिया ।
-अजय प्रसाद

212 212 212
टूट कर जो बिखर जाते हैं
क्या पता वो किधर जाते हैं ।

दिल में वो रहते हैं फ़िर कहाँ
जो नज़र से उतर जाते हैं ।

गैर कब तक भला साथ दे
अपने ही जब मुकर जाते हैं ।

पूछते हैं कहाँ हाल अब
दूर से ही गुजर जाते हैं ।

देखा है मैंने लोगों को भी
सब गवां कर सुधर जाते हैं ।

-अजय प्रसाद

गर हाथों में हुनर है तो बेरोजगारी क्यों
नौकरी चाहिए तुमको बस सरकारी क्यों ।

हौसला है,हिम्मत है,ताकत है,फ़िर भी
रह रहें हैं चंद लोग बनकर भिखारी क्यों ।

सदियाँ बीती मगर न समझा अजय कोई
के आदमी ही है आदमी का शिकारी क्यों।
-अजयप्रसाद

फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22
मैं किसी भीड़ का हूँ हिस्सा नहीं
क्या आपको ये भी दिखता नहीं।
मुझको पढ़ कर आप फैसला लें
मैं अनर्गल कुछ भी लिखता नहीं।
नज़रिया है मेरा सबसे अलग
मेरआंखों से सच बचता नहीं ।
हक़ बयानी का है लह्ज़ा जुदा
मेरी लेखनी पहले जैसा नहीं ।
हाँ देख रहा हूँ तुमको अजय
माना ढीठ कोई तुझ सा नहीं
-अजय प्रसाद

बेहद खुश हो अपनी खुद्दारी पे
बन के जमूरा मन के मदारी के ।

करके जुगाड़ और दे कर रिश्वत
लग ही गया वो नौकरी सरकारी पे।

किससे,कितना,औ कब है लेना
सारा दारोमदार है अधिकारी पे ।

तू तो कहता था कि सब ठिक है
लोग उतर गए हैं मारा-मारी पे ।

बात ही मत करना खुदगर्ज अजय की
जिंदा है मौत की खातिरदारि मे ।
-अजय प्रसाद

बहर-ए-हिन्दी मुतकारिब इसरम मक़बूज़ महज़ूफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
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महफ़ूज़ हूँ मैं मुझसे दूर रहा कर
हाँ औरों के लिए फ़ितूर रहा कर ।

इश्क़ में इन्वेस्टमेंट अब है फिजूल
तू खफ़ा मुझ से मेरे हुजूर रहा कर ।

तेरी गली के फेरे लगाता है कौन
मेरे लिए तो तू खट्टे अंगूर रहा कर ।

झांसे में नहीं मैं तेरे आनेवाला
दिल से मुझे तू भले मंजूर रहा कर ।

फ़ख्र है बेहद अपनी गरीबी पे तुझको
तो जा अजय उमर भर दूर रहा कर
-अजय प्रसाद

बहर-ए-हिन्दी मुतकारिब मुसद्दस मुज़ाफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़े

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जीत भी यारों अब मुझको हार लगता है
सुना सुना सा ये सारा संसार लगता है।

कर रही हैं तन्हाइयां तीमारदारी यूँ
ये खाली कमरा ही मेरा यार लगता है ।

हूँ तो बासिंदा वर्षो से मैं इसी घर का
खफ़ा खफ़ा सा क्यों दरो दीवार लगता है।

ज़िंदा हूँ बेसबब ज़माने में जबरन
गर सच कहूँ तो जीवन बेकार लगता है।

सुन कर तेरी बातें अजय हो गया यकीन
कि अपने आप से ही तू बेज़ार लगता है ।
-अजय प्रसाद

बहर-ए-हिन्दी मुतकारिब मुसद्दस मुज़ाफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़े

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हाँ,बिक्रम भी मैं औ बेताल भी मैं हूँ
देता हूँ मैं जवाब और सवाल भी मैं हूँ ।

इतना हैरान क्यों हो मेरी फितरत पे
यारों उस क़ुदरत का कमाल भी मैं हूँ ।

बदला है दौर के साथ ही दिनोईमान
बेहद खुदगर्ज अमीर औ कंगाल भी मैं हूँ।

लिखता हूँ मैं इबारत अपने हुनर के दम पे
माज़ी,मुस्तकबिल और हाल भी मैं हूँ।

,ज़िंदादिली ,जहालत जन्नत या दोज़ख़
राहत भी मैं और जी का जंजाल भी मैं हूँ
-अजय प्रसाद

निखरा हूँ मैं यारों उनसे नजरें मिला कर
करता हूँ बातें अब सबसे मुस्कुरा कर।

खुशकिस्मत हूँ मैं भी हुआ यकीं अब
जब किया इकरार उसने आँखें झुका कर।

ज़िंदगी कट रही थी गुमनाम बे मक़सद
कर दिया मशहूर उसने अपना बना कर ।

खुश हूँ मैं और दिल को भी है सुकूं यारों
ख्वाब भी खुश हैं हमारी नींद में आकर।
-अजय प्रसाद

बहर-ए-हिन्दी मुतकारिब इसरम मक़बूज़ महज़ूफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन

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डर है उन्हें कहीं मशहूर हो न जाऊँ
पहुँच से उनकी मै दूर हो न जाऊँ ।

पढ़ते हैं वो गज़लें मगर छुप छुप कर
हैं फिक्रमंद के मगरूर हो न जाऊँ

सदमे में हैं यारों चांद और सूरज
है शक़, जहाँ का मै नूर हो न जाऊँ ।

इसलिए वो महफिल में आते नहीं है
शमा के दिल का गुरूर हो न जाऊँ ।

जिस तरह से फिदा हैं वो शायरों पर
शायरी को मै भी मजबूर हो न जाऊँ ।
-अजय प्रसाद

फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22
मौत का स्वाद तो चखना पड़ेगा
कर्म का फल तो भुगतना पड़ेगा ।

लड़ना गर है ज़माने से तुमको
जिगर लोहे का रखना पड़ेगा ।

चाहते हैं गर मंजिल पाना
रास्तों से फिर उलझना पड़ेगा ।

आसां नही दिल को समझाना
खुद से खुद को ही लड़ना पड़ेगा ।

लो आ गई फ़िर अजय याद उनकी
अश्क़ों से अब वजु करना पड़ेगा ।
-अजय प्रसाद

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