क्या भूख मिट सकेगी तेरी ?
झूठ को सहेजकर,
ईमान अपना बेचकर,
आंखों को यूँ भींचकर
जातिगत लकीरें खींचकर,
धर्म को गलत ठहराकर,
आपस मे सबको लड़ाकर
क्या पेट भर सकेगा तू?
क्या भूख मिट सकेगी तेरी?
सब्र की भी एक हद होती है।
गुनाह सा बन गया है,
ऊंची जाति में जन्म लेना,
चाहती हूँ खींचना,
समानता की लकीरें
पर मैं अकेली…
क्या बदल सकती हूँ,
सबकी तक़दीरें…?
सही को गलत ठहराकर,
पूर्वजों की पीड़ा सुनाकर,
लोगों को गुमराहकर,
हर दिल में कड़वाहट भरकर,
नफरत की आग भड़काकर,
जाति-धर्म का पाठ पढ़ाकर
क्या पेट भर सकेगा तू।
क्या भूख मिट सकेगी तेरी?
ओस की बूंदें अधरों पर पड़ी,
पर क्या प्यास बुझ सकी ?
पेट के भूगोल में,
उलझे हुए इंसान !
कब तलक तू अपने श्लथ श्रम को,
बनाएगा हथियार…
जरा टटोल अपने मन को,
कौन है तेरे इस हालात का जिम्मेदार ?
पार कर सकोगे, यह
कहना मुकम्मल भूल है,
राहें सभी की एक हैं,
जहाँ फूल है वहाँ शूल है।
इस अहद की सभ्यता,
नफ़रत के रेगिस्तान में
क्या पेट भर सकेगा तू?
क्या भूख मिट सकेगी तेरी?
@स्वरचित व मौलिक
कवयित्री शालिनी राय ‘डिम्पल’
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश।