शब्द मेरे
अक्सर मेरे मन के नभ में भाव के मेघ उमड़ते हैं,
कभी गरज़ते कभी बरसते जब अधरों पर रहते हैं
व्यथित लगे मन ऐसे जैसे काली घटा सी छाई हो
अश्रु बनकर वेदना छलकी ज्यों बूँदें बह आई हो,
ढलते, उगते सूरज के संग पहर से भाव बदलते हैं
हवा से ये मद्धम- मद्धम कभी तूफ़ानों से चलते हैं,
हृदय बीच बसा कर मैंने बरसो शब्द को सींचा हैं
मुक्त गगन में छोड़ दिया ना लक्ष्मणरेखा खींचा है,
मन हृदय के बीच में शब्द, कड़ी पकड़कर रहते है
भावों की बारिश होती और रचना बनकर बहते है,,