#लघुव्यंग्य-
#लघुव्यंग्य-
🙅 एक दुनिया, दो प्रजातियां!🙅
[प्रणय प्रभात]
मित्रों! मैं जाति भेद, धर्म भेद, भाषा भेद, लिंग भेद, योनि (प्रजाति) भेद जैसे किसी भेद को नहीं मानता। फिर भी कोई मुझसे जीवों का वर्गीकरण करने को कहे, तो मैं उनका विभाजन बस दो वर्गों में कर सकता हूँ।
एक पशु और एक मनुष्य। पशुओं के दो उपवर्ग हैं। एक सामिष, एक निरामिष। जिन्हें हम जंगली व घरेलू के रूप में भी बांट सकते हैं। इसी प्रकार मनुष्यों के भी कुल दो वर्ग हैं। पहला संवेदनशील अर्थात सामाजिक, मानवीय गुणों का गोदाम। दूसरा संवेदनाशून्य अर्थात असामाजिक। दुर्गुणों और विकारों का मॉल या कारखाना।
अब आप कहेंगे कि इनकी पहचान कैसे हो? मैं बताता हूँ आपको। अपनी देहाती (लठमार) भाषा में। एक सीधे-साधे से उदाहरण के साथ। जिसके बाद आपको न ख़ुद से कुछ सोचना पड़ेगा, न मुझ जैसे शोधकर्ताओं से पूछना पड़ेगा।
सामाजिक या संवेदनशील वो, जो हर किसी के बाप को स्थूल रूप में (ऑफ़लाइन) रो आएं। बिना आगा-पीछा या नफ़ा-नुकसान सोचे। असामाजिक या सम्वेदनाशून्य वो, जो किसी की माई को सूक्ष्म रूप में (ऑनलाइन) भी न रो पाएं। अपनी झूठी अकड़ व थोथी शान के मारे। जगत घूम कर ढूंढने की ज़रूरत नहीं। दोनों प्रकार के प्राणी आपके आसपास ही मिल जाएंगे। वो भी घर बैठे। मन की आंखों से देखेंगे तो।
अब “गुस्ताख़ी माफ़” कहने वाला नहीं। मूड फ़िलहाल “हिसाब साफ़” का है। बिल्कुल नहीं कहूँगा कि “बुरा न मानो, होली है।” हाँ, इतना ज़रूर कहूँगा कि “अच्छे से बुरा मानो, होली पास ही है।” वही होली, जो जीवन और दुनिया के रंग अपने में समेटे है। तुम्हें होली और रंगों से क्या? तुम्हारी बदरंग सोच के पास अपने तमाम रंग हैं। गिरगिट की तरह। घड़ी-घड़ी में बदलने वाले। वो भी धूप-छाँव और रात-दिन के मुताबिक। जय राम जी की।।
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-सम्पादक-
न्यूज़&व्यूज (मप्र)