जब मोड़ रहा जीवन को माया
जब मोड़ रहा जीवन को माया
शिव ने नाश किया मन की सीमाओं का,
जब अंतर्मन विचलित भाग रहा
शिव ने नाश किया उसमें पलती कुशंकाओ का,
जब धर्म को व्यापार बना खेल रहे कुछ लोगशिव ने तोड़ा उन भ्रमों को
जब गौ गायत्री गीता छली जा रही शिव ने थामा उनसब सैलाबों को
जब जीवन मरघट सा वीरान छल भस्मो का नर्तन हिय होने लगा तब शिव रोका उन आवेगित रुदनों को
शिव ने सिखलाया कंठ विष धर
शांति समाधि लगाना ,
बस तब से अश्रु खार हुई , अहि जैसा फुंफकार उठी ,
धीर धर हलाहल पी वो भी नीलकंठ हुई