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2 Apr 2024 · 1 min read

आजकल गरीबखाने की आदतें अमीर हो गईं हैं

आजकल गरीबखाने की आदतें अमीर हो गईं हैं
दाल रोटी अब नसीब कहाँ ख्वाहिशें पनीर हो गईं हैं

कहाँ तो मुनासिब ना थी दो वक्त की रोटी जुटा पाना
वो भूरी सी कुतिया अब रोज खाने में सीर हो गई है

मखमल सी चादर ओढ़कर बैठे हैं आसन सजा कर जो
फुटपात पर पड़ी मैली चादर उनके रहिशी की मुखबीर हो गई है

तुम्हे लगता हो कि इस उत्थान से जल भून गया हूँ मैं
कितनों की ही रहिशी सरेबाजार फकीर हो गई हैं

इस मुफ्तखोरी ने छीन लिया है चेहरे के श्रम कणों को
गरीब होना और गरीब बनकर रहना एक नज़ीर हो गई है

बात ये नहीं कि उनकी ख्वाहिशें पनीर हो गईं हैं
बात यह है कि ये गरीबी उनके माथे की लकीर हो गई हैं ।।

भवानी सिंह “भूधर”
बड़नगर, जयपुर
दिनाँक:-०२/०४/२०२४

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