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22 Feb 2024 · 1 min read

तुम - दीपक नीलपदम्

तुम हो सुगंधि मेरे जीवन के पुष्प की,
वीणा सा साज हो, मेरे मन के संगीत की,
उछाह हो लहरों की, प्रीत के समुद्र की,
झनकार घुंघरुओं की, नीरवता के मध्य की।
कोरे कैनवास पर, रंग और रिक्त की,
आँखों में थिरकती हुई, साकी के चित्र सी,
वेदना के बीच में, औषधि निमित्त सी,
अनसुने-अनकहे एक, प्यारे कवित्त सी ।
तलाश हो तुम मेरे, जीवन के मंत्र की,
हो प्राणवान ऊर्जा, निर्जीव इस यंत्र की,
खुल गईं हों बेड़ियाँ, जैसे परतंत्र की,
निर्मल शीतलता, शरण में संत की,
सुध-बुध ना रहे, आदि की या अन्त की ।
इस सत्य की सत्यता, आज तुम जान लो,
प्रीति की शक्ति की, परास को पहचान लो,
भाव के भाव को, आंकने की युक्ति की,
तुम शक्ति हो, आराध्य हो,
किसी भक्त की भक्ति की ।

(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

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