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18 Feb 2024 · 2 min read

पुरखों का घर - दीपक नीलपदम्

पता पिता से पाया था

मैं पुरखों के घर आया था

एक गाँव के बीच बसा पर

उसे अकेला पाया था ।

माँ बाबू से हम सुनते थे

उस घर के कितने किस्से थे

भूले नहीं कभी भी पापा

क्यों नहीं भूले पाया था ।

जर्जर एक इमारत थी वो

पुरखों की विरासत थी वो

कितने मौसम बीत चुके थे,

पर उसे अकड़ता पाया था ।

दरवाजे हठ कर बैठे थे

कितने ऐंठे कितने रूठे थे

चीख चीख कर करें शिकायत

क्यों तुमने बिसराया था ।

द्वार खुले तो मिला बरोठा,

मुझे लगा वो भी था रूठा,

मुख्य द्वार पर बड़ा सा कोठा,

वो रोने को हो आया था ।

दीवारों पर लगे थे जाले

हठ करके न हटने वाले

जैसे धक्का देके भगाएँ

कितनी मुश्किल से मनाया था ।

कभी पिताजी ने बतलाया

इस कमरे में रहते थे ताया,

गजब रसूख था, गजब नाम था

पर अब वो मुरझाया था ।

उसके आगे एक बरामदा

उससे आगे था फिर आँगन

आँगन के आगे कुछ कमरे

वक़्त वहीँ ठहराया था ।

तभी वहाँ कुछ खनक गया था

शंखनाद भी समझ गया था

देखा वहाँ एक मंदिर था

मैं कितना हर्षाया था ।

उस आँगन के कितने चर्चे

सुने हुए काका के मुख से

कितनी रौनक होती थी ये

काका ने बतलाया था ।

तभी वहां कुछ हमने देखा

दीवालों पर बचपन देखा

पापा के हाथों की छापों पे

अपनी हथेलियाँ रख आया था ।

न थी लकड़ी धुआं कोयला

न चूल्हे की ठण्डी राख़

उस रसोई में प्यार पका था

जो था अब भी पर सकुचाया था ।

मोटी थी मिटटी की दीवारें

पर पक्के रिश्ते बसते थे

छूट गया था घर आँगन वो

बाबू ने भूल न पाया था ।

ड्राइंग रूम नहीं होते थे

एक हॉल में सब सोते थे

चिट्ठी के चट्टे अब तक थे

मैं कुछ को पढ़ आया था ।

उसी हॉल की दीवालों पर

पुरखों के कुछ चित्र लगे थे

मेरी आँखों से नीर वहा तब

मैं उन सबको ले आया था ।

पता पिता से पाया था

मैं पुरखों के घर आया था

एक गाँव के बीच बसा पर

उसे अकेला पाया था ।

(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम् “

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