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12 Feb 2024 · 1 min read

कविता

दुर्मिल सवैया

गरजे बरसे न कभी वदरा अपना बस रूप दिखावत है।
भयभीत भले करता चलता पर नीर कभी न गिरावत है।
चमके दमके बमके घनघोर घुमे वह भाव बनावत है।
डरवावत झूठ चला करता अपना मुँह पीटत भागत है।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।

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