संस्कार
एक गाँव में एक किसान रहता था। उसके चार बेटे थे। बूढ़े किसान और उसकी पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद चारों भाइयों ने खेती सम्भाल ली। तीन भाइयों का विवाह हो चुका था। तीनों की पत्नियाँ बेहद घमण्डी और स्वार्थी प्रवृत्ति की थीं। तीनों खाना बनाकर और स्वयं खाकर सो जाती थीं। थके-हारे चारों भाई खेत से आते, स्वयं खाना निकालकर खाते। अच्छे-अच्छे पकवान बनाकर तीनों बहुएँ स्वयं खा लेतीं और चारों भाइयों को पूछती तक न थीं। चारो भाई खेत में काम करने और पत्नियों की फरमाइशें पूरी करने में लगे रहते। पत्नी के बर्त्ताव का विरोध करने पर तीनों एक साथ लड़ने-झगड़ने पर उतारू हो जाती थीं।
चौथे भाई का भी विवाह हुआ। आशा जगी कि कहीं यह संस्कारी हुई तो बाकियों में भी बदलाव होगा। लेकिन कहते हैं न ‘जैसा देश वैसा वेश’। नई दुल्हन भी उसी रंग में रंग गई। चारों भाई निराश हो गए। लेकिन उन्हें यकीन था, कभी-न-कभी ईश्वर का चमत्कार अवश्य होगा। और हुआ भी।
बड़ी बहू के मायके में आग लग गई। पूरा घर और सामान नष्ट हो गए। घर में उसकी माँ, भाभी और छोटे बच्चे ही मात्र थे। पिता और भाई पिछले वर्ष दुर्घटना के शिकार हो गए थे। बड़ी बहू को अब कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करें।
चारों भाइयों को जब उस घटना का पता चला तब वे वहाँ गए। अपने पास बचे पैसे और गाँव वालों से कुछ कर्ज
लेकर चारों ने उनका घर बनवा दिया और आवश्यक सामान भी खरीद दिए। बड़ी बहू की आँखें नम थीं। चारों बहुओं के हृदय का कायाकल्प हो चुका था। बूढ़े किसान के दिए संस्कार ने उनके बेटों के जीवन को स्वर्ग बना दिया।
# मौलिक व स्वरचित
डॉ० श्री रमण
बेगूसराय (बिहार)