सर्दियों में धूप से मुलाकात
घर आते हुए रास्ते में धूप मिल गई,
केसर घुले ताज़े कच्चे दूध की कटोरी सी,
रेशम सी नर्म, चिकनी, कुछ गुनगुनी सी।
मैंने कहा -चल ना -मेरी गली में बड़ा सर्द बर्फ़ीला अंधेरा पसरा है।
बोली बस! ज़रा सा काम है, निबटा लूं,
तारों की अलगनी पे किरणें फ़ैला आई हूँ -बस! ज़रा समेट लूं, तहा कर रख दूं,
तू चल मैं पीछे-पीछे अभी -अभी आई,बल्कि कुछ किरणें मैं साथ लेती आउंगी।
और सचमुच वो फ़ौरन पहुँच भी गयी।
गली पार करके, दहलीज़ लाँघ कर, फ़र्श को चूमती, दर- ओ-दीवार पर सर-सर फ़िसलती, छतें चूमती,
आँगन में पसर गयी।
हौले से बोली -थक सी गयी हूँ -ज़रा खटिया डाल दे,
कमर सीधी कर लूं, थोड़ा सुस्ता लूं।
सांझ तक रुक के, ज़रा आराम करके,
सितारों के संग, चांदनी के पहलू में वापस लौट जाउंगी।
मेरा क्या है तू जो कहे -कल फ़िर आ जाउंगी ,
रोज़-रोज़ आउंगी।
और मैं निश्चिंत हूँ सर्द अंधियारे, मेरी गली में -डेरे नहीं डालेंगे,
गुनगुने उजाले अब मेरे घर, गली पे
मेहरबान हो गए हैं।