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14 May 2023 · 1 min read

कविता

महज कविता नहीं हूं मैं
तीर सा चुभता शब्द हूँ मैं।
शब्दों में पिरोई, मोतियों का गुच्छा हूँ मैं,
शब्द नहीं शब्द का सार हूँ मैं॥

कटते पेड़ों की उन्मादी हवा हूँ मैं,
प्रकृति का बिगड़ता संतुलन हूँ मैं।
बाइबल हूँ, कुरान हूँ मैं,
अपने आप मे एक महाभारत हूँ मैं॥

हर नए शुरुआत की हडबड़ाहट हूँ मैं,
शर्दियों में ठिठुरते बेघरों की ठिठुरन हूँ मैं।
गर्मियों में तपते मज़दूर का,
बहता पसीना और गर्माहट हूँ मैं॥

लोभ, छोभ,मोह, माया और उत्साह हूँ मैं,
दुख, दर्द, घाव , बीमारी और इलाज हूँ मैं।
किसी एक ने लिखा नहीं है मुझे,
बहुतों के पीड़ा और दर्द का अहसास हूँ मैं॥

हिंसा और अराजकता हूँ मैं,
भय, चिंता और कलेश हूँ मैं।
प्यार, भाईचारा और आपसी सौहार्द हूँ मैं॥

किसी के भीतर पल रहे भावों का उन्माद हूँ मैं,
जो मुझे गाए उनका गीत हूँ मैं।
जो मुझे समझे और माने उनका मीत हूँ मैं॥

दशों रस, तीनों गुण और
चारों ऋतुओं का पोशाक हूँ मैं,
मुझे लिखने वाले की पहचान हूँ मैं।
महज़ कविता नहीं हूँ मैं॥

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