Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
24 Jan 2022 · 1 min read

वक्ष में प्रेम के जब खिले पुष्प थे, मैं सुगंधों तले ही हुआ मुग्ध था

वक्ष में प्रेम के जब खिले पुष्प थे, मैं सुगंधों तले ही हुआ मुग्ध था।

प्रेम के बीज कब के हुये अंकुरित,
अंश पर हल लिए मैं भटकता रहा।
जोतने – सीचने को जमीं नेह की,
किन्तु हिय में तभी कुछ चटकता रहा।
भान होता रहा कुछ अलग चल रहा,
कुछ सजग चल रहा कुछ सबल चल रहा।
सौम्य – संमोहिनी एक छवि नैन में,
नित्य दिखती लगे कुछ प्रबल चल रहा।

हाल उर की हुई थी कहूँ क्या शुभे! निज अवस्था कठिन मन बड़ा क्षुब्ध था।
वक्ष में प्रेम के जब खिले पुष्प थे, मैं सुगंधों तले ही हुआ मुग्ध था।।

प्रेम के उस चरण की कहानी यहीं,
अंक में शीश रख गीत गाती रही।
माथ को चूमकर तब अधर से प्रिय,
नेह की रागिनी गुनगुनाती रही।
शून्यता थी भरी तब हृदय में सुनो,
मैं समझ ही न पाया मुझे क्या हुआ।
प्रीति के आगमन की छुअन वो प्रथम,
भान था ही कहाँ प्रेम ने कब छुआ।

मैं सुलगता रहा कण अनल की तरह, बोध अनुराग का मन हुआ लुब्ध था।
वक्ष में प्रेम के जब खिले पुष्प थे, मैं सुगंधों तले ही हुआ मुग्ध था।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’

Loading...