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25 Jul 2021 · 4 min read

”घर का नाैला ”

पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों के दुष्कर जीवन से कौन परिचित नहीं। किंतु फिर भी शिवदत्त को अपने पैतृक गांव ”धुनौली” से बहुत लगाव है। शिवदत्त के परिवार में उसकी पत्नी “संतोषी” और एक दस बरस की बेटी “धानी” है। गांव की कठिन जीवनशैली, सीमित संसाधन और उसकी आर्थिक परिस्थिति तीन लोगों के इस छोटे परिवार के भरण पोषण के लिए भी पर्याप्त नहीं है। बस यूं समझ लीजिए कि किसी तरह गुजर बसर होती है। जमा पूंजी के नाम पर पुरखों का बनाया एक छोटा सा पत्थरों का मकान जो अब जीर्ण शीर्ण हालत में है,आस पास के कुछ सीढ़ीदार खेत, एक गाय,दो बकरियां और उसके घर से मात्र बीस कदम की दूरी पर शिवदत्त केे अपने खेत में है एक प्राचीन नौला। जिसे उसका परिवार ”घर का नाैला” कहता है।

नौला जल संचय का एक मानव निर्मित कुंड होता है या कहें कि पानी की छोटी बावड़ी। जिसे कुमाऊनी भाषा में ”नौव” भी कहते हैं। जो कि तीन तरफ से पत्थरों की दीवार से और ऊपर से स्लेट पत्थर की छत से ढका हुआ होता है। नौला ऐसे जल श्रोत पर बना होता है जहां पानी ज़मीन से होकर पहुंचता है। जानकारों की माने तो नौले के जल श्रोत की संवेदनशीलता इतनी होती है कि अगर उसकी बनावट और जल निकासी में किसी भी तरह का बदलाव किया जाए तो जल श्रोत नष्ट हो सकता है। अधिकांश नौलों का निर्माण मध्यकाल से अठारहवीं सदी के दौरान हुआ था। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के साथ साथ नौला कई पहाड़ी इलाकों में जीवन का आधार भी है। पहाड़ में आज भी ऐसे गांव हैं जहां जल का एक मात्र श्रोत नौला ही है। जैसे कि शिवदत्त का गांव। आधुनिकीकरण, अतिक्रमण, प्राकृतिक आपदाओं और पलायन के चलते अब नौले विलुप्त होने की कगार पर हैं।

गिने चुने पांच छै परिवार ही रह गए हैं शिवदत्त के गांव में। ”आभाव में भी गांव के लोगों में सदभाव देखने को मिलता है।”

आज के ज़माने में जहां ज़मीन के छोटे से टुकड़े के लिए लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं वहीं दूसरी तरफ शिवदत्त के घर का ये नाैला आज भी इन सभी परिवारों को प्रेम से जोड़े हुए है। नौला शिवदत्त के अपने खेत में ही है लेकिन आज तक उसने या उसके परिवार ने किसी से भी कोई रोक टोक नहीं की। सब अपनी अपनी जरूरत के हिसाब से नौले का उपयोग करते हैं। धानी को अपनी बकरियों और नौले से बहुत अधिक लगाव है। संतोषी जब जब पानी लेने नौले पर जाती,धानी भी पीछे पीछे चल पड़ती अपनी बकरियां लेकर। गांव के अन्य बच्चे भी अपनी मां और आमा के साथ वहां आते। धानी और परूली बहुत अच्छी सहेलियां हैं। संतोषी ,परूली की ईजा ”मां” और अन्य सभी पानी भरने के साथ साथ एक दूसरे का सुख दुख भी बांट लेती। कभी-कभार थोड़ा बहुत हंसी ठहाका भी हो जाता। धानी,परूली अन्य बच्चों के साथ स्कूल-स्कूल खेलते। धानी मास्टरनी बन कर सभी को पाठ पढ़ाती। सभी बच्चे उसकी बात ध्यान से सुनते और उसके साथ साथ दोहराते। संतोषी ये देखकर खुश तो होती पर धानी के भविष्य को लेकर व्याकुल हो उठती।

इस साल नौले का पानी कुछ कम होता दिखा। शिवदत्त और सभी गांव वालों के लिए यह एक बहुत गंभीर चिंता की बात थी। घर का नौला अगर सूख गया तब गांव में रहना लगभग नामुमकिन है। पानी के अन्य श्रोत शिवदत्त के गांव से तकरीबन तीन चार कोस दूर होंगे। शिवदत्त और सभी गांव वालों का यही मानना था कि अनाज और साग सब्जियां सीमित ही सही पर भगवान की कृपा से हमारे पास नौला तो है। जल है तो जीवन है। गांव में कोई भी साक्षर नहीं था। थोड़ा बहुत खेती करने के सिवा और किसी भी तरह के काम की जानकारी उनमें से किसी को नहीं थी। इसलिए शहर जाकर रोजी रोटी कमाने का भी कोई अवसर इतनी जल्दी मिल पाना संभव नहीं था।

अब सभी गांव वालों के पास एक ही ध्येय था कि कैसे भी करके नौले को बचाया जाए। गांव वालों ने जिला प्रशासन ,पालिका कर्मियों सभी तक अपनी गुहार लगाई । किंतु सरकारी तंत्र की अव्यवस्थाओं से नौले के संरक्षण का कार्य विलंबित होता चला गया। गांव वालों ने अपने स्तर पर भी प्रयास किए किंतु एक और नौला समय की भेंट चढ़ गया। आजीविका की खातिर शिवदत्त का परिवार और गांव के सभी जन को गांव से पलायन करना पड़ा। नौला ना सिर्फ प्राचीन या सांस्कृतिक धरोहर है अपितु इंसान का प्रकृति से सामंजस्य बनाकर चलने का एक श्रेष्ठ उदाहरण भी है। अब गांव में समय का हस्ताक्षर मात्र बनकर रह गया वो शिवदत्त के ”घर का नौला”

– विवेक जोशी ”जोश”

Disclaimer:
* कहानी निश्चित रूप से पहाड़ की एक ज्वलंत समस्या को ध्यान में रखकर लिखी गई है। किंतु कहानी में उल्लिखित सभी पात्रों और स्थान विशेष के नाम का चयन लेखक की पूर्ण रूप से कल्पना है। इसका किसी भी व्यक्ति के निजी जीवन से साम्य हो जाना एक संयोग मात्र ही होगा। वे सभी पाठक जो नौला शब्द से परिचित नहीं हैं, उनकी जानकारी के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध नौले से संबंधित कुछ तथ्य कहानी में सम्मिलित किए हैं । जिससे पाठकों को कहानी के मूल को समझने और पहाड़ की वेदना का आभास हो।

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