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8 Jun 2021 · 2 min read

मैं हूं

मोहब्बत के साजिशों से तुड़वाया मैं गया हूं।
अपनो के अक्लियत से झुकवाया मैं गया हूं।

मेरा खुमार है ये इल्म– ए–सुखन न कहना।
मेरा है हिमाकत ये इसको कलम न कहना।
कुदरत के नवाजिश से बनवाया मैं गया हूं।
मोहब्बत के साजिशों से तुड़वाया मैं गया हूं।1

जलता हूं दीप बनकर मुफलिस के ठिकानों में।
अड़ता हूं जैसे पर्वत अड़ता हो तुफानों में।
बगाबत के रहगुजर पर डलवाया मैं गया हूं।
कुदरत के नवाजिश से बनवाया मैं गया हूं।2

गुजरा है उम्र मयकश होते हुए हमारा।
फिरता हूं भटकता मैं होकर के बेसहारा।
जब से तुम्हारे घर से ठुकराया मैं गया हूं।
बगाबत के रहगुजर पर डलवाया मैं गया हूं।3

जख्मों से तर बतर था लज्जत रहा न बाकी।
उल्फत के रास्तों पर चाहत रहा न बाकी।
अश्कों के बारिशों से नहलाया मैं गया हूं।
जब से तुम्हारे दर से ठुकराया मैं गया हूं।4

कहते हैं जो ये उल्फत ऊंचा मैय्यार का है।
पूजा है आरती है परवरदिगार का है।
उनके जुबाँ से पागल कहलाया मैं गया हूं।
अश्कों के बारिशों से नहलाया मैं गया हूं।5

बनते हैं आग शोला–ओ–ख़ाक धुआँ सब कुछ।
करते निसार जो हैं मोहब्बत में यहां सब कुछ।
उनके ही महफिलों से बुलवाया मैं गया हूं।
उनके जुबाँ से पागल कहलाया मैं गया हूं।6

किसकी भला है चाहत बदनाम हो के जीना।
दुनिया में नुमाइश को अक्सर शराब पीना।
अपने ही दोस्तों से बहकाया मैं गया हूं।
उनके ही महफिलों से बुलवाया मैं गया हूं।7

उल्फत के डोर में यूं उलझा हूं सुलझ कर तब।
फूलों के हार से भी टूटा हूं मुरझ कर तब।
बर्फों की तरह “दीपक” पिघलाया मैं गया हूं।
अपने ही दोस्तों से बहकाया मैं गया हूं।8

©®दीपक झा “रुद्रा”

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