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7 Jun 2021 · 1 min read

विश्वासों ने पार उतारा।

विश्वासों ने पार उतारा।
संदेहों के सागर गहरे विश्वासों की नाव हठीली,
विचलित किया बहुत लहरों नें लेकिन अपनी राह न भूली,
मधुर पलों के टापू आये समय सिंधु था गहरा खारा,
विश्वासों नें पार उतारा।
नयनों पर तम की चादर थी व उनका विस्तार अगम था,
राहों को वन लील चुके थे वे जिनका प्रसार सघन था,
मन की आभा ने तब आकर तम का सब प्रभाव उतारा,
विश्वासों ने पार उतारा।
लथपथ होकर हांफ रहे थे एकाकीपन से टकराकर,
लगता था आधारहीन हैं जाने कहाँ रुकेंगे जाकर,
स्वयं को ही बाहों में भरकर स्वयं का मैं बन गया सहारा,
विश्वासों ने पार उतारा।

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