रजक जी संयुक्त परिवार पर आपकी चिंता जायज है,किंन्तु आज परिवार में त्याग की भावना का अभाव पैदा हो गया है, कभी परिवार में यह नहीं सोचा जाता था कि कौन कमा रहा है कौन खर्चा कर रहा है, सबमें अपनत्व का प्रबल भाव रहता था! धीरे धीरे घर परिवार में कमाने वाले का महत्व बढ़ने लगा, कमाने से मतलब रुपए पैसे से है, घर के अन्य वह काम जो पैसे से जुड़े नहीं थे वह गौण समझे जाने लगे, फिर सुविधाओं में इजाफा और कमी दिखाई देने लगी, परिवार में कटुता और दुराव बढ़ने लगा, फिर झगड़ा फिसाद की नौबत आ गई और फिर टूटन पैदा हो गई, फिर एक नया वर्ग तैयार हो गया जो नकद कमाता वह रोज ठाठ से रहने लगा, जो खेती बाड़ी में था वह जब कभी फसल बिकती तो घर खर्च कर पाता, जो मजदूरी करता वह भी मजदूरी मिलने पर ही कुछ खरीद पाता था, तो अमीरी गरीबी सामने झलकने लगी, खेती बंट गई, आमदनी और घट गई, नौकरी पेशा की आमदनी बढ़ने लगी और साथ में खेती से भी हिस्सा मिल जाया करता था, तो एक ओर ठाठ-बाट और दूसरी ओर अभाव ही अभाव! ऐसे में परिवार टूटने लगे जो अब भी अनवरत जारी है! मैं स्वयं भुक्त भोगी हूं, इस बिखराव का! सादर अभिवादन सहित। ़़़़झगड़फ
रजक जी संयुक्त परिवार पर आपकी चिंता जायज है,किंन्तु आज परिवार में त्याग की भावना का अभाव पैदा हो गया है, कभी परिवार में यह नहीं सोचा जाता था कि कौन कमा रहा है कौन खर्चा कर रहा है, सबमें अपनत्व का प्रबल भाव रहता था! धीरे धीरे घर परिवार में कमाने वाले का महत्व बढ़ने लगा, कमाने से मतलब रुपए पैसे से है, घर के अन्य वह काम जो पैसे से जुड़े नहीं थे वह गौण समझे जाने लगे, फिर सुविधाओं में इजाफा और कमी दिखाई देने लगी, परिवार में कटुता और दुराव बढ़ने लगा, फिर झगड़ा फिसाद की नौबत आ गई और फिर टूटन पैदा हो गई, फिर एक नया वर्ग तैयार हो गया जो नकद कमाता वह रोज ठाठ से रहने लगा, जो खेती बाड़ी में था वह जब कभी फसल बिकती तो घर खर्च कर पाता, जो मजदूरी करता वह भी मजदूरी मिलने पर ही कुछ खरीद पाता था, तो अमीरी गरीबी सामने झलकने लगी, खेती बंट गई, आमदनी और घट गई, नौकरी पेशा की आमदनी बढ़ने लगी और साथ में खेती से भी हिस्सा मिल जाया करता था, तो एक ओर ठाठ-बाट और दूसरी ओर अभाव ही अभाव! ऐसे में परिवार टूटने लगे जो अब भी अनवरत जारी है! मैं स्वयं भुक्त भोगी हूं, इस बिखराव का! सादर अभिवादन सहित। ़़़़झगड़फ
बहुत सुंदर आपने बहुत अच्छा कहा धन्यवाद आपका जी