श्याम सुंदर जी आपके द्वारा व्यक्त यह अल्फाज़, हमें बार बार झकझोरते हैं कि मैं जिस राह पर हूं वही राह सही भी या नहीं, लेकिन जब मन मस्तिष्क,दिल दिमाग, विवेक का सहारा लेता है तो फिर कदम आगे खुद ब खुद बढ़ने लगते हैं, जहां तक मैं समझा हूं,मेरा यही मत है! सादर अभिवादन
धन्यवाद !
सुंदर कविता
धन्यवाद !
सुंदर कविता आदरणीय।
धन्यवाद !
” मैं खुद का गुनाहगार हुआ बेकसूर था “
सर यह पंक्ति समझ नही आई ।
इसमे लेखक खुद को गुनहगार भी मान रहा है और बेकसूर भी ।
अच्छा लिखा है सर ।
सर में कोई भी रचना बिना पढ़े बिना समझे अपना कमेंट नही करता । इसलिए मेरी बात का बुरा ना मानना ।
मुझे अपने सच की राह पर चलना गुनाह सा लगने लगा , जबकि सच की राह पर चलना कोई कसूर नहीं है। यह एक एहसास है जो अक्सर सच की राह पर चलने वाले को वक्त की मार से होता है , जब चारों तरफ झूठ का बोलबाला हो।
शि’आर -ए-जीस्त का अर्थ ज़िंदगी का दस्तूर है। जिसमें हम चारों तरफ के झूठ के साथ जिंदगी को भोगते हैं। अतः ज़िंदगी में सच और झूठ दोनों शामिल है। केवल सच्चे बने रहने से जिंदगी नहीं चलती है।
धन्यवाद !
बहुत खूब सर जी नमस्कार सर जी आपको बहुत बहुत धन्यवाद आपकी उर्दू बहुत सुंदर है।
प्रोत्साहन का साधुवाद !
बहुत खूब, आपको सादर प्रणाम।
धन्यवाद !
???वाह…!
श़ुक्रिया !