श्रीमान,
अपनी-अपनी सोचने की शक्ति है मेरे लिए तो कृष्ण सर्वत्र हैं, आस्था को अर्थ की आवश्यकता नहीं होती ,कर्म ही भक्ति का एकमात्र सफल मार्ग है …अकर्मण्यता कभी भक्ति विकसित नहीं कर सकती।
भक्तियोग का मार्ग कभी अकर्मण्यता नहीं सिखलाती,
मैंने आपकी रचना अच्छे से पढ़ी है, रचना सुन्दर है, कुछ शब्द प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहे हैं? एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाया है ईश्वर को जानने के लिए,
लेकिन किसी की श्रद्धा,भक्ति को चुनौती नहीं दी जा सकती चाहे वो पूजा पाठ करे या अगरबत्ती दिखलाये, या वो मंदिर जाकर अपनी भक्ति का मार्ग प्रशस्त करे।
कृष्ण मंदिर तक ही नहीं, सर्वत्र हैं कहना सर्वथा यथोचित होगा ! चूंकि कृष्ण भगवान ने कर्म की प्रधानता पर ही बल दिया था उसी परिप्रेक्ष्य में ऐसा कहना कहीं से भी अतार्किक प्रतीत नहीं होता !!
मेरी कविता में भाव पक्ष के स्थान पर वस्तु पक्ष पर बल दिया गया है ।मेरी कविता सिर्फ मनोरंजन को केंद्र में रखकर नहीं लिखी गई है मेरी कविता समाज में जिन प्रश्नों की आज आवश्यकता है उन प्रश्नों को उठाया गया है । आप कृष्ण की भक्ति करते हैं किंतु कृष्ण की भक्ति करना ही एकमात्र ईश्वर की प्राप्ति नहीं है …. पुनः कह रही हूं कृष्ण की भक्ति करना ही एकमात्र ईश्वर की प्राप्ति नहीं है कृष्ण के आचरण के अनुरूप ढल जाना ही भक्ति है। समाज किस ओर जा रहा है खोखली खोखली बातें धर्म-कर्म का आडंबर यह क्या स्थापित करेंगे? राम की पूजा करना ही भक्ति नहीं है राम के आचरण स्वरूप खुद को ढालना भक्ति है । श्रीमान ! मेरी भक्ति की परिभाषा अलग है! और हां अगर आप कविता लिखिए और आलोचना ना हो तो कविता निष्प्राण जाती है मेरी कविताओं पर आलोचना होना आवश्यक है, समाज के लिए । क्योंकि आज समाज में इन्हीं प्रश्नों की आवश्यकता है। आप उठाइए कोई भी समाचार पत्र जहां पर आपको कृष्ण के अनुरूप आचरण करने वाले आज के युवा मिल जाए, आज के युवा मिल जाए, प्रवृतियां बदल रही हैं भक्ति के नाम पर जो ढोंग और पाखंड समाज में फैल रहा है। उस पर लगाम लगाएगा यदि आप और हम साहित्यकार पहले के साहित्यकारों की भांति अगर चिंता ना करें ,मानवीय संवेदनाओं को उजागर ना करें तो यह दायित्व किसके ऊपर है??
महानुभव ,आपने अखबारों में अवश्य पढा होगा ,टीवी पर भी देखा होगा जब बड़े बड़े बाबा लोग मंच पर बैठकर धर्म के नाम पर अच्छा अच्छा भाषण देते हैं ,अच्छी-अच्छी दलीलें रखते हैं लोग किस प्रकार कुछ भूल कर, पूरी तरह से भ्रम में पड़कर खुद को समर्पित कर देते है फिर क्या होता है ,उनके साथ? रातों-रात गायब लड़कियां गायब किसी की लाशें जमीन के अंदर मिलती हैं ।बहुत कुछ होता है मैं जानती हूं ,आप भी सब जानते हैं, तो कौन है इसके पीछे? वह मैं मानती हूं कि पूजा ,अर्चना करनी चाहिए भगवान का अस्तित्व है लेकिन भगवान एक सोच है , जो मां घर में बच्चे को पालती है ,घर में अपने पति के लिए खाना बनाती है वह पूजा नहीं है ?धर्म नहीं है? वही पूजा पाठ के नाम पर वह मंदिर में घंटी बजाते रहे और उसका बच्चा पालने पर होता रहे उसका पति भूखे जाए ऑफिस क्या यह धर्म है ?क्या यह भक्ति है? क्या हम ध
इस प्रकार की भक्ति को हम बढ़ावा देंगे? श्रीमान, सोचने का विषय है कर्म ही धर्म है।
धर्म कोई भी हो पाखंड तो पाखंड है। अगर यह पाखंड सभी धर्मों में है तो सभी कुछ पाखंड है मेरा मुद्दा तो सिर्फ धार्मिक आडंबर को खत्म करना, पाखंड को खत्म करना सच्ची भक्ति स्थापित करना है। धर्म कोई भी हो किंतु कर्म एक हो आपसी सद्भावना आपसी प्रेम समन्वय की भावना, यही धर्म है।
कृष्ण तो सर्वव्यापी है वो तो सर्वत्र व्याप्त है, इसी सर्वत्र में मंदिर भी आता है, तो सीधा सा अर्थ है कि मंदिर में भी वही होगा , इसलिए काव्य रचना की ये पंक्ति, क्या कृष्ण है मंदिर मे ? या न जाने मंदिर में कौन रहता है, सनातन संस्कृति के अनुरूप नहीं लगता,
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे तो एक माध्यम होता है भावनाओं को परिष्कृत कर ईश्वर से संपर्क स्थापित करने का , श्रद्धा भाव जगाने का, अन्तर्मन में विद्यमान ईश्वर को जागृत कर आत्मसाक्षात्कार करने का,
अद्वैत दर्शन” में कहा गया है कि “यत्र जीवः तत्र शिवः” तो क्या लोगों ने अपनी क्षुधा मिटाने के लिए पशुओं की हत्या बंद कर दी,
वास्तव में ‘द्वैत’ के अभाव में ‘अद्वैत’ की सिद्धि नहीं हो सकती।
ज्ञानप्राप्ति से पूर्व द्वैत मोह का कारण है, किन्तु बोध हो जाने पर पता चलता है कि अद्वैत से द्वैत कहीं अधिक सुन्दर है
भक्ति परमात्मा में आस्था और प्रेम का नाम है। नारद ने उसे ‘परमप्रेमरूपा’ कहा है।अगर किसी को धूप दिखाने से अगरबत्ती दिखाने से श्रद्धा भाव, भक्ति भाव जागृत होता है और भाव परिवर्तन होता है तो हमें तकलीफ क्यों,
यदि कर्मयोग के बल पर लक्ष्य प्राप्ति एवं मुक्ति मिल सकती है तो भक्तियोग को भी कम कर आकलन नहीं कर सकते, भक्तियोग यदि सिद्ध हो जाता है तो यह कर्मयोग को और भी मजबूत करता है।