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सुंदर सारगर्भित प्रस्तुति !
धन्यवाद !
इस संदर्भ में मेरी राय निम्न है :
वास्तविकता में आधुनिकता की परिकल्पना दिग्भ्रमित है , आधुनिकता का अर्थ पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण आजकल की युवा पीढ़ी द्वारा मान लिया गया है । पाश्चात्य संस्कृति की प्रबुद्ध सोच एवं अन्वेषण के फलस्वरूप जीवन शैली में विकासोन्मुख परिवर्तन लाया जाकर प्रगतिशील दिशा की ओर अग्रसर होना एक सकारात्मक संकेत होता। परंतु दुर्भाग्य से हमारी युवा पीढ़ी ने पाश्चात्य संस्कृति की बुराइयों का अनुसरण करना प्रगतिशीलता मान लिया है।
जहां तक विज्ञान का प्रश्न है , विज्ञान तार्किक आधार पर सत्यता की प्रमाणिकता की खोज है।
जबकि धर्म समाज में कर्म प्रधान अनुशासित जीवन निर्वाह कर स्वीकार्य मानवीय मूल्यों की स्थापना है। मनुष्य के सामाजिक प्राणी के रूप में राक्षसी एवं मानवी प्रवृत्तियाँ विद्यमान रहती हैं।
समाज में विसंगतियों एवं बुराइयों के लिए राक्षसी प्रवृत्तियाँ कारक होती हैं , जबकि सामाजिक संतुलन के लिए मानवी प्रवृत्तियों का प्रभाव रहता है। किसी व्यक्ति विशेष में इन प्रवृत्तियों की मात्रा उसके गुण एवं दोषों का निर्धारण करती हैं , जो उसके चरित्र निर्माण में मुख्य भूमिका निभाती हैं।
कालांतर में इन्ही प्रवृत्तियों के कारण ऐतिहासिक घटनाओं का निर्माण हुआ।

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आधुनिक जगत में व्यक्तिगत सोच के स्थान पर समूह सोच का अधिक विकास हुआ है। संचार एवं संपर्क माध्यमों के द्वारा विभिन्न सामाजिक मंचो के विकास से समूह सोच का वर्चस्व अधिक है।
जिसके कारण आधुनिक अंधानुकरण को बढ़ावा मिला है, एवं व्यक्तिगत सोच का हनन हुआ है।
जहां तक आधुनिक समाज में नारी की भूमिका का प्रश्न है। यह एक अत्यंत जटिल प्रश्न है।
जहां तक समाज में नारी सशक्तिकरण एवं आत्मनिर्भरता का प्रश्न है यह केवल कुछ बड़े शहरों एवं कस्बों तक की सीमित होकर रह गया है।
ग्रामीण परिवेश में नारी की स्थिति में कोई विशेष सुधार ना आकर वह अभी भी पुरुषों के अधीन परंपराओं , संस्कार एवं सामाजिक मूल्यों की पृष्ठभूमि में शोषित स्त्री बनकर रह गई है।
यह एक कटु यथार्थ है।
अतः सार्थक आधुनिकता एक यक्ष प्रश्न बनकर रह गई है।

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