Kavita
कविता -तिरस्कार
तिरस्कार तिरस्कार बस तिरस्कार ही पाया है समाज से।
त्रिशंकु सा जीवन हर पल जी रही हूं ,या रहा हूं पता नही।
संकोच नही हुआ माँ को नन्हा शिशु सौंपते हुवे अजनबियों को।
बना डाला क्यो मुझे भी उस तिरस्कृत भीड़ का हिस्सा ।
जहां न जाने क्यों बज रही है बस तालियाँ लगातार ।
मष्तिष्क, हृदय, देह सब कुछ तो है मेरे पास फिर भी।
अधूरापन सूनापन संघर्ष अकेलापन और ये तिरस्कार ।
कौन समझेगा ये दर्द ,जब माँ की कोख ही नही समझ पाई।
अपूर्णता और जीवन को जन्म न दे पाने की यह अथाह पीड़ा
जैसे हृदय को बार बार काट रही हो बड़ी बड़ी काली चीटियाँ।
परिवार का स्नेह ,त्याग ,सुरक्षा,महत्व ,समर्पण से मैं वंचित ।
मिला, बस शहर का एक कोना और अस्तित्व के लिए संघर्ष।
और ऐसी बिमारियाँ, जिनका इलाज ये समाज नही करता।
गन्दगी तालियाँ और ये गालियाँ,अर्थ हीन बनाया किन्नर शरीर..
जीने के लिए मांग कर खाना कब तक सहूँ, ये संघर्ष पुराना।
प्रेम पाने और प्रेम देने के अधिकार से तो मैं सदा वंचित रहा ।
पर स्वार्थ हो जहा ये समाज ने तब तब मुझको निमंत्रित किया।
देखता हूं घृणा, भय ,घूरती आँखे ,और तिरस्कार जब समाज से
सोचती हूं हाय देव ,तूने मुझे ये किस कर्म का है फल दिया।
क्यों ये तुरंगमुख देह बनाई ,क्यों नही मुझे सम्पूर्ण किया ।
क्यों नही मुझे सम्पूर्ण किया ।
कापीराइट @मनीषा जोशी मनी ।