ICU में “मां”
सुबह के शायद ग्यारह बज रहे थे। एम्स के हृदय विभाग में ICU के नीले बन्द दरवाजे को लगभग आधे घंटे से निहार रही थी मैं। नर्स बोल के गई थी रुकिए थोड़ी देर में बताती हूं आप को कौन सी दवा लानी है… मैं भी रुकी रही।
आधे घंटे बाद दरवाज़ा खुला तो नर्स बाहर आकर बोली “जरूरत नहीं, आप जाएं।”
मैं सकते में आ गई ऐसे कैसे जरूरत नहीं?
मां की हालत ख़राब बताई थी इन लोगों ने और साथ ही कोई दवा थी जो उन्हें देनी बहुत जरूरी थी। इन्हीं लोगों ने बोला था मुझे।
मैंने एकदम से पूछ दिया जरूरी कैसे नहीं वो दवा जो लानी थी आप लोगों के पास ही मिल गई क्या?
उस नर्स ने कहा…”नहीं उस दवा की जरूरत नहीं, आप जाइए”
ज्यादा बहस नहीं किया जा सकता था सो मैंने भी सोचा “कोई नहीं… ये लोग सब अच्छे से जानते हैं।
मां ठीक होंगी तभी ऐसा कह रहीं हैं। तो बस मां का हाल ही पूछ के वेटिंग में इंतजार कर लेती हूं। सो मैंने पूछा “मां ठीक तो है?”
उनका जवाब था…”हां वो ठीक है, आप जाएं”
मैं भी धीरे कदमों से वापस होने लगी। सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी तो मैंने सोचा… कल शाम से अब तक इन लोगों ने मां को देखने नहीं दिया है क्यूं न एक बार देख ही लूं ,फिर नीचे जाऊंगी। यहीं सोच वापस हुई, चंद सीढ़ियां जो उतर चुकी थी उसे फिर से तेज कदमों से चढ़ते हुए उपर गई। इस बार मां को देखना था, तो कदमों में तेजी लाज़िम थी। उसी नीले दरवाजे के उपर लगे बेल को बजा कर फिर से वहीं खड़ी हो गई, जहां पिछली बार खड़ी थी। उसी नर्स ने दरवाजा खोला और मुझे देखते ही मानो झल्ला गई हो। पूछा…”क्या है? जाने को बोला था तो वापस क्यूं आई?”
मैंने धीरे से बस इतना कहा…”एक बार मां को देख लेने दीजिए”
वो गुस्सा करते हुए बोली…”आप लोगों को समझ नहीं आता ये वार्ड नहीं, आईसीयू है। आप अटेंडेंट लोग हम लोगों को अपने हिसाब से काम क्यूं नहीं करने देते? फिर तुनकते हुए गार्ड पर चिल्लाने लगी…”तुम डयूटी कर रहे हो या तमाशा? लोग घुस आते हैं और तुम रोकते नहीं?
गार्ड मेरे बिल्कुल करीब आकर बोला …”मैडम जाइए न… मेरी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी”
मैंने कुछ देर चुप चाप उसे देखा फिर वापस होने लगी। सोचते हुए एक बार देख लूंगी अपनी बीमार मां को तो कैसे इसकी नौकरी खतरे में पड़ेगी। उस नर्स का क्या चला जाता अगर एक बार मुझे मां को दिखा देती?
पीछे पलट कर देखी तो गार्ड अपने जगह पर नहीं था और वो दरवाजा भी खुला था जिस के अंदर मेरी मां थी।
मैंने सोचा जो होगा देखा जायेगा अभी तो मुझे मां को देखना ही है। भागते हुए दरवाजे तक पहुंची, दरवाजे का ओट लेते हुए अंदर झांका तो सर घूम गया, पांव कापने लगे। पूरा वार्ड घूमता मालूम हो रहा था।
अपने आप को संभालते हुए ठीक से देखने कि कोशिश करने लगी। तो देखा तीन चार नरसिंग स्टाफ और एक डॉक्टर मां पे झुका हुआ है। उनके गले में जहां “ट्रोकस्ट्रोमी टियूब” लगी थी उस से लगातार खून निकल रहा है। कोई उनकी छाती को दबा रहा है तो कोई कुछ कर रहा है। अंदर पूरी अफरा तफरी मची हुई थी। सब कुछ न कुछ कर रहे थे ।
तभी उन में से एक कि नज़र मुझ पे पड़ी, वो लगभग चिल्लाते हुए बोली “तुमको बताया तो समझ नहीं आया? चलो निकलो यहां से। अब इस बार मैं अड गई बोली “नहीं जाऊंगी, जो करना है करो। वो जो बीमार है जिस की हालत इतनी ख़राब है वो मेरी मां है”
उसने कहा “होगी लेकिन हमारे लिए बस एक पेशेंट है। जिसकी बचने की कोई उम्मीद नहीं मगर हम कोशिश कर रहे हैं, बचाने की। बची तो बची… नहीं तो क्या कर सकते हैं। रोज लोग मरते हैं, अब उम्र भी तो हो गई है… और आप लोगों को पहले ही इनकी हालत की सूचना दे दी गई है जाइए यहां से, हमें अपना काम करने दीजिए”
इतना सुनना था कि जनवरी के उस शर्द सुबह में मानों देह में आग लग गई हो। मैंने कहा… “आप लोगों के घर में मां नहीं होती? आप अपने रिश्तों के साथ भी इतनी ही ठंडी होती ?”
तभी अंदर से नर्स को बुलाया गया, वो फिर वही बात दोहराते हुए अंदर चली गई …”जाइए आप यहां से, अटेंडेंट नहीं रुक सकते”
मैं, अपनी बेचारगी के साथ फिर एक बार अंदर झांक कर बाहर जाने को जैसे ही मुड़ी। किसी ने आवाज़ लगाई सुनिए… पलट कर देखा तो इमरजेंसी का ब्रदर था, नजदीक आकर उस ने एक पर्ची हाथ में पकड़ाते हुए कहा ये… “इस दवा को जल्दी ले आइए। और हां आप परेशान न हों, दवा लेकर आजाएं आप की मां जल्द स्वस्थ हो जाएंगी।”
उनकी बात सुन थोड़ा अच्छा लगा फिर भी भागते कदमों से दवा लेने चल पड़ी। लगभग 25 – 30 दुकान ढूंढने पे एक दुकान में दवा मिली। जिसके बाद फिर उसी तेजी से वापस आई।
चौथी मंजिल के आईसीयू तक सीढ़ियों से ही लगभग दौड़ते हुए चढ़ना पड़ा क्योंकि एक भी लिफ्ट में जगह नहीं थी।
पहुंच कर जैसे ही घंटी बजाने वाली थी अचानक दरवाजा खुल गया और साथ ही पूछा गया “इंजेक्शन मिला क्या?”
मैं इतनी हाफ रही थी कि मुंह से शब्द तो नहीं निकले हां हांथ खुद वखुद बढ़ गए जिस में दवा वाला पैकेट था। ब्रदर उसे ले अंदर जैसे ही जाने को मुड़ा पैकेट उसके हांथ से छूट कर फर्स पे गिर गया और इंजेक्शन की शीशी फूट दवाई चारो तरफ फैल गई।
ब्रदर लगभग शर्मिंदा होते हुए मुझसे मुखातिब हो बाला…”मैंने जान बूझ कर नहीं किया ये गलती से हुआ है। मुझे माफ़ कर दीजिए। ये बात अगर अंदर गई तो… ”
मैं समझ चुकी थी, मुझे फिर वही काम करना है। फिर से उतनी दूर जाकर दवा लानी है। मैंने बोला तो कुछ नहीं बस आंखों से इशारा करते हुए कहा, कोई नहीं…
फिर हांफते हुए लिफ्ट की तरफ भागी, इस बार भी लिफ्ट में मरीज़ था सो सीढ़ियों से ही जाना पड़ा। बस अब मेरे जेब में पैसे नहीं थे। सोचते हुए जा रही थी क्या करूं तभी एक परिचित की आवाज सुन मुड़ी… उन्होंने पूछा “मां कैसी है?” मैंने कहा जेब में कुछ पैसे है क्या? उन्होंने पूछा “कितना”… सात सौ रुपए
बिना कुछ बोले उन्होंने दे दी। मैं फिर भागने लगी इस बार और ज्यादा तेज क्यूं कि देर हो चुकी थी।
इस बार वापस अकर सीधा ICU me घुस गई। दवा देते हुए पूछा मां कैसी हैं? उन्होंने बिना बोले बाहर जाने को कहा। मैं भी वापस आ गई सीढ़ियों से उतरते हुए किसी मित्र का फोन आ गया जिसे पूरी बात बताई उसने सलाह दी घर वालों को सूचित कीजिए। उन्होंने अपने तरीके से मुझे उस मानसिक अवस्था से निकाला जिस में मैं डूबी जा रही थी।
बात करते करते चाय दुकान तक पहुंच गई थी। वहां जाकर कहा… “मनीष एक डिप चाय दीजिए मेरी वाली” मनीष चाय हाथ में पकड़ाते हुए बोला “आज सुबह से दिखे नहीं?”
मैं मुस्कुराते हुए बस इसरा कर लौट आई “ऐसे ही”
उस समय से अगली सुबह नौ बजे तक कई बार छुपते छुपाते मां को देख आई बस ये पता नहीं चला वो पहले से बेहतर हैं या नहीं। अगली सुबह दस बजे कॉल हुआ “नीलिमा सिंह के अटेंडेंट ICu में संपर्क करें” भागते हुए गई, उन्होंने दो छोटी छोटी शीशी हांथ में पकड़ाते हुए कहा जांच के लिए दे आईए और ये दवा लेते आइएगा” इतना ही कहने के बाद वो लौटने लगी मैंने पूछा “मां कैसी है? एक बार मिल लेने दीजिए”
उन्होंने कहा वापस आओ फिर मिल लेना।
मां से मिलने की खुशी में पिछले चौबीस घंटे की थकान उतर गई।
भागते हुए दोनों काम किए वापस आई तो मिलने दिया गया। गाऊन सेट पहन अंदर गई तो मां सोई हुई थीं। उनका हांथ अपने हाथ में ले जैसे ही गाल में सटाई मां ने आंख खोल दी। ऐसा लगा मानो अभी अभी सूर्योदय हुआ हो। चारो तरफ रोशनी फैल गई थी। बस उन आंखों में अजनबी पन था जैसे पूछ रही हो… कौन हो तुम?
ग्यारह दिन के बाद आईसीयू से इमरजेंसी वार्ड में सिफ्ट हुईं। वहां से 55 दिन बाद घर वापसी हुई।
हमारे घर की आत्मा वापस आई अपने घर में…
~ सिद्धार्थ