Ghazal
तशना लब थे उठा कर न दरिया पिया
प्यास अब तक के दरिया के होंटो पे है
झूठ रंगीन पोशाक़ में है सजा
और सच का चलन अब मुखौटो पे है
लाख दौलत के पैकर संभाले रहो
ख़ुद की पहचान अब तो अंगूठों पे है
ये ग़ज़ल का है मक़तब आअली जनाब
किसका रुत्बा है क्या ये तो चोटों पे है
सिक्के बाज़ार में चल चुके जो चले
अब तो दारोमदार सिर्फ़ खोटों पे है
शहाब उद्दीन शाह क़न्नौजी