तीन सौ वर्ष की आयु : आश्चर्यजनक किंतु सत्य
तीन सौ वर्ष की आयु : आश्चर्यजनक किंतु सत्य
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ऋग्वेद के तृतीय मंडल के 17 वें सूक्त के तीसरे मंत्र में यह कहा गया है कि मनुष्य तीन सौ वर्षों तक जीवित रह सकता है अगर वह ब्रह्मचर्य तथा आहार और विहार का समुचित रूप से पालन करे।
सामान्य रूप से सौ वर्ष जीवित रहने की बात कही जाती है । किंतु ऋग्वेद का उपरोक्त मंत्र बहुत ही आश्चर्यजनक है। इसका विशेष महत्व इसलिए है कि जिन साधनों से हम सौ वर्ष की आयु जी सकते हैं , लगभग उन्हीं साधनों से हम तीन सौ वर्ष की आयु भी प्राप्त कर सकते हैं ।अंतर साधना का है। उन साधनों को गहराई से आत्मसात करने का है । 300 वर्ष का जीवन आश्चर्यजनक भले ही लगे लेकिन यह सत्य है ।
थियोसॉफिकल सोसायटी की संस्थापक मैडम ब्लेवैट्स्की एक महान ध्यान योगी थीं। उनका संपर्क कुछ ऐसे महात्माओं से था जो उनसे मिलते थे। मैडम ब्लेवेट्स्की ने लिखा है कि जब वह युवा थीं तब भी वह महात्मा युवा थे और जब वह वृद्ध हो गईं तब भी वह महात्मा लोग युवकों के समान ही जान पड़ते थे। इसका अभिप्राय यह है कि उन महात्माओं पर 25 – 30 साल के समय का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। अगर 300 वर्ष की आयु किसी की है, तब बहुत स्वाभाविक बात है कि 50- 40 साल का उसके जीवन में कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा । और 50 – 40 साल भी क्यों ? मेरे विचार से तो अगर किसी की आयु 300 वर्ष होगी ,तब लगभग 250 वर्ष की आयु तक उसकी युवावस्था चलनी चाहिए । अगर कोई व्यक्ति 100 वर्ष जीवित रहता है तो इसका मतलब यह है कि वह 84 वर्ष की आयु तक युवावस्था के अंतिम चरण तक की यात्रा पूरी करता है । इस क्रम में छठा हिस्सा जीवन का अर्थात लगभग 16 वर्ष वृद्धावस्था की जान पड़ती है ।तात्पर्य यह है कि अगर 80 वर्ष का किसी का जीवन है, तब उसकी वृद्धावस्था 65 वर्ष की आयु से आरंभ होगी । अगर किसी का कुल जीवन ही मात्र 64 वर्ष है , तब उसकी वृद्धावस्था लगभग 50 वर्ष की आयु के बाद आरंभ होनी शुरू हो जाएगी ।
बहुत लंबे समय तक हम वृद्धावस्था को शरीर के साथ जोड़कर नहीं चल सकते, क्योंकि जैसे ही वृद्धावस्था आरंभ होगी तो इसका मतलब यह है कि अब मृत्यु की ओर की यात्रा आरंभ हो चुकी है । वृद्धावस्था का लंबा होने का मतलब यह रहेगा कि जीवन बोझिल होगा और उत्साह से रहित हो जाएगा। प्रकृति इसके खिलाफ है । प्रकृति एक ऐसी सृष्टि को निर्मित करने की पक्षधर है , जिसमें हर व्यक्ति हंसता – खिलखिलाता हुआ हो और लंबा जीवन युवावस्था के साथ उत्साह पूर्वक बताए। और अंत में जब शरीर दुर्बल होने लगे, इंद्रियां शिथिल हो जाएं, शरीर के अंग काम करना बंद कर दें ,तब व्यक्ति धीरे धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाए।
मृत्यु पहली नजर में हमें आश्चर्यचकित करती है , भयभीत भी करती है और शोक के महासागर में डुबाती है। लेकिन यह तभी तक है ,जब तक हम शरीर की नश्वरता को जान नहीं लेते । एक बार शरीर की नश्वरता को हमने समझ लिया , तब उसके बाद शरीर का मरना हमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं लगेगा । मृत्यु के सत्य को समझने के बाद मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है क्योंकि व्यक्ति यह समझ जाता है कि उसके शरीर का एक न एक दिन तो अंत होना ही है और जब हम यह समझ जाते हैं कि मृत्यु एक बहुत ही सहज, सरल और स्वाभाविक प्रक्रिया है, तब हमें शरीर के नष्ट होने का शोक भी नहीं रहता ।क्योंकि हम यह समझ चुके होते हैं कि मृत्यु कोई अनहोनी बात नहीं है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि कम से कम 100 वर्ष और ज्यादा से ज्यादा 300 वर्ष हम कैसे जिएं ? सबसे पहले जलवायु ,जो साफ-सुथरी होनी चाहिए। प्रदूषण से मुक्त वायुमंडल हो, साफ पानी उपलब्ध हो । दूसरी बात हमारा आस पड़ोस सब सुखी, संतुलित और स्वच्छ अवस्था में हो । यह जो बात कही गई है कि सब लोग सुखी हों, सब लोग निरोगी हों- यह केवल सबके हित की बात नहीं है। इसमें हमारा स्वयं का भी गहरा स्वार्थ है।
न केवल हम स्वस्थ हों, हम स्वच्छ रहें अपितु हमारा आस-पड़ोस भी निरोगी, उल्लासमय और स्वच्छता के साथ जीवन बिता रहा हो।
वास्तव में हम जो सांस लेते हैं ,.वह उस वायु को ग्रहण करते हैं जो वायु हमारे आस- पड़ोस के लोग छोड़ते हैं । उदाहरणार्थ 100 लोगों ने अगर किसी बंद कमरे में सांस छोड़ी तो हम उसी साँस को उस कमरे में ग्रहण करते हैं ,जो लोगों ने छोड़ी। इस तरह जो दूसरे लोग वायुमंडल निर्मित करते हैं , हम उसी वायुमंडल को ग्रहण करते हैं । निरोगी व्यक्ति की सांसें अलग प्रकार का वायुमंडल निर्मित करती हैं तथा रोग से ग्रस्त व्यक्ति अलग प्रकार की वायु छोड़ेगा ।
जब समाज में सभी लोग निरोगी होंगे, सर्वत्र स्वच्छता होगी ,तब हमें एक ऐसा वायुमंडल मिल जाएगा -जो हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होगा ।
भोजन स्वास्थ्यप्रद होना चाहिए, प्रदूषण से मुक्त होना चाहिए, हमारी सारी गतिविधियां संतुलित और संयमित होनी चाहिए । समय के चक्र का उन सब में विशेष रुप से ध्यान रखना चाहिए। इतना सब होने पर भी हम ज्यादा से ज्यादा 100 वर्ष जीवित रह सकते हैं । आयु को 100 वर्ष से बढ़ाकर 300 वर्ष तक ले जाने का कार्य ब्रह्मचर्य के द्वारा ही संभव है । ब्रह्मचर्य का संबंध प्राणायाम ध्यान और समाधि से है। यह अपने आप में विवाह – विरोधी विचार नहीं है ।किंतु इतना निश्चित है कि साँसों की क्रियाएं हमारे शरीर को शुद्ध करने में समर्थ होनी चाहिए। तथा ध्यान के माध्यम से हम परमात्मा के संपर्क में अपने आप को अनुभव करें। ध्यान में जाने से व्यक्ति के तनाव समाप्त हो जाते हैं । उसके जीवन में कुछ न होने की स्थिति आ जाती है। और वह अपने को हल्का महसूस करने लगता है।
ध्यान में जो अद्भुत नशा है , वह न केवल हमारे शरीर को बूढ़ा बनाने से रोकता है, अपितु इस दिशा में जो भी विकृतियां पहले से आई हुई हैं ,उनके समाधान का रास्ता भी खोजता है। यह तो निश्चित है कि 300 वर्ष की आयु हो या चाहे 100 वर्ष की आयु हो– एक न एक दिन हर व्यक्ति को मरना ही है।
आहार-विहार और ब्रह्मचर्य की ध्यानमय साधना हमारे जीवन को ही दीर्घायु नहीं बनाती अपितु हमें स्वास्थ्य भी प्रदान करती है, जो हमारे जीवन को खुशियों, उमंग, उत्साह और स्फूर्ति से भर देती है । हमें ऐसे ही आनंदमय जीवन की कामना करनी चाहिए ।
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लेखक :रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा ,रामपुर