हमने किस्मत से आंखें लड़ाई मगर
चलते हुए मैंने जाना डगर में,
" बढ़ चले देखो सयाने "
भगवती प्रसाद व्यास " नीरद "
ग़म है,पर उतना ग़म थोड़ी है
यह जो तुम कानो मे खिचड़ी पकाते हो,
दिवाली के दिन सुरन की सब्जी खाना क्यों अनिवार्य है? मेरे दाद
हैं फुर्सत के पल दो पल, तुझे देखने के लिए,
*जो अपना छोड़कर सब-कुछ, चली ससुराल जाती हैं (हिंदी गजल/गीतिका)*
कर दो मेरे शहर का नाम "कल्पनाथ"
इक्कीसवीं सदी की कविता में रस +रमेशराज
पूर्वानुमान गलत हो सकता है पर पूर्व अनुभव नहीं।
ज़िंदा रहने से तो बेहतर है कि अपनें सपनों
मुकाबला करना ही जरूरी नहीं......
देह से देह का मिलन दो को एक नहीं बनाता है
जग का हर प्राणी प्राणों से प्यारा है
ॐ
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)