221 2121 1221 212
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लूटा रहे थे अज़मत तो था कहाँ वतन
खामोश होके आवाज़ को सुनता था वतन
डोली सजी हुई है मेरी इन दिवारो पर
शम्मा जलाके घूमता कैसा मेरा वतन
आँखों में शर्म लेके खड़ा रहता है जहाँ
कहता नहीं हुआ क्या है ये आपका वतन
बाबा से क्या कहूँ मैं चली दूर आपसे
अर्थी उठाने आयेगा चल के यहां वतन
कैसे “जुबैर” कैसे सिला खून से कफ़न
बस लाश देखता है तमाशा बना वतन
लेखक – ज़ुबैर खान…….✍️