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11 Jan 2023 · 21 min read

21…. त्रिभंगी छंद (मात्रिक छंद)

21…. त्रिभंगी छंद (मात्रिक छंद)
चार पद, प्रत्येक पद में चार चरण और 32 मात्रा,10/8/8/6, पदांत दीर्घ। इस छंद का प्रत्येक पद तीन बार भंग होता है, इसलिए इसे त्रिभंगी छंद कहते हैं।
2+7 चौकल+2अथवा 8 चौकल

नित सुर मुनि गावत, भजन सुनावत, भाग्य मनावत, नाचत है।
मधु ढोल मजीरा, हरते पीरा, सुखी शरीरा, धावत है।
हरि भक्त मंडली, सदा मंगली, झूम झूम सुख, पावत है।
प्रभु आते सुनने, दुख को हरने, भाव विमल बन, आवत है।

प्रिय मोहक दर्शन, शिव दिग्दर्शन, दिव्य मरम यह, मन शोभा।
नहिं काम नशावत, मन स्थिर जागत, मोह भगावत, नहिं लोभा।
जब कृपा बरसती, दया पनपती, करुणामृत रस, मधु टपके।
प्रभु बहुत रसीला, मोहक लीला, के देखन को, मन लपके।

22…. त्रिभंगी छंद
मात्रा भार 10/8/8/6, तीन यति

अति सुंदर शोभा, मन प्रिय लोभा, मधु रति मोहित, सुख पावत।
प्रिय देह बलिष्ठा, अतिशय सुष्ठा, सरस सुधा सम, मन भावत।
वह बुद्धिमान अति, नेति नेति इति, सर्वोपरि वह, जग आवत।
नटवर गोपाला, यशुदा लाला, प्रिय मोहन को, जग गावत।

प्रिय लीला करता, मन को हरता, कर्त्ता धर्ता, दुख मोचक।
वह रास रचाता, सखी बनाता, गोप बालिका, का पोषक।
असुरों का भक्षक, जन संरक्षक, संतों का वह, हितकारी।
जग गावत महिमा, ऊंची गरिमा, अनुपम प्रतिमा, सुखकारी।

23…. त्रिभंगी छंद (नैया)

यह मेरी नैया, बन खेवैया, तुम रखवैया, पार लगे।
हे मेरे प्यारे, सदा सहारे, हृदय दुलारे, भाव जगे।
तुम पार लगाओ, इसे बचाओ, जल्दी आओ, हे प्रीतम।
मत देर करो जी, हाथ धरो जी, कष्ट हरो जी, हे अनुपम।

अब फंसी हुई है, धंसी हुई है, इसे निकालो, पार करो।
देखो नैया को, वर दो इसको, मुंह मत मोड़ों, प्यार करो।
तुम परमेश्वर हो, रामेश्वर हो, जगदीश्वर हो, अब आओ।
हे परम कृपालू , दीनदयालू , हे धर्मार्थी, आ जाओ।

24…. माधव ध्वनि छंद (अभिनव)
मात्रा भार 27, तीन चरण 8/8/11
चार पद, सम तुकांत दो दो या चारों पदों का।

चिंतन करता, बहुत मधुरता, निर्मल स्वच्छ विचार।
मित्र समझता, नहीं कुटिलता, मोहक शिष्टाचार।
अपना जानत, सबको मानत, मन में नहीं विकार।
स्वेच्छा योगी, कभी न ढोंगी, इससे ही कर प्यार।

नयन मिलाता, शीश झुकाता, देता है सम्मान।
सच का राही, सत्य गवाही, है उत्तम इंसान।
सबकी पीड़ा, सहज लेत सिर, इतना बड़ा महान।
स्पष्टवाद की, सदा वकालत, करता दिव्य सुजान।

25…. तुलसी छंद (मात्रिक)
चार पद सम मात्रिक पदान्त तुकांत
प्रत्येक पद में तीन चरण, मात्रा भार 10/8/12, प्रत्येक पद में कुल 30 मात्रा भार

वह धर्म धुरंधर, ज्ञान समंदर, भक्ति भावना रागी।
करता प्रभु भक्ती, अति अनुरक्ती, लोक मंगला त्यागी।
नहिं क्रोध दिखाता, प्रेम सिखाता, प्रिय जीवन बड़ भागी।
सबका कल्याणी, हर्षित प्राणी, स्वार्थरहित अनुरागी।

प्रति क्षण अभिनंदन, ईश्वर वंदन, काम द्वेष का मारक।
करता प्रभु पूजा, काम न दूजा, खुद बनता उद्धारक।
अपने को देखत, सबको खेवत, शुद्ध क्रिया का कारक।
अति प्रेम पिपासू, करुणा आंसू, मधुर शब्द उच्चारक।

26….. तुलसी छंद

सुंदर बालाएं, प्रिय अबलाएं, मोहक रूप निराला।
हर लेती पीड़ा,करतीं क्रीड़ा, दे देतीं सुख प्याला।
अतिशय मनभावन, बहुत लुभावन, सदा प्रेम रस हाला।
तन से अति गोरी, मन से कोरी, दिल है प्रिय मतवाला।

वह ललिता कविता, पावन सरिता, बहती पावन धारा।
जन प्रिया रसीली, छैल छबीली, मंत्रमुग्ध जग सारा।
अति मादक चितवन, रहती मधुवन, अंग सुकोमल प्यारा।
मधु मोहक बोली, जिमि रस घोली, अधर लालिमा क्वारा।

27…. स्वर्णमुखी छंद (सानेट)

मां सरस्वती जिसको प्यारी।
वह लिखता पढ़ता रहता है।
हर मौसम प्रति पल सहता है।
वह मानव प्रिय लेखनधारी।

मन लगता मां के वन्दन में।
शुभ चिंतन ही उसका जीवन।
परहित पावन मधुरिम उपवन।
दिव्य ध्यानरत अभिनन्दन में।

मां सरस्वती का अनुरागी।
पढ़ता और पढ़ाता सबको।
अच्छी राह दिखाता जग को।
वह बनता ज्ञानी बड़ भागी।

माता जी की कृपा झलकती।
जब रचना में सोच गमकती।।

28…. मनहरण घनाक्षरी (वार्णिक)
31वर्ण, चार पद,8,8,8,7
चौथे पद का अंतिम दो वर्ण लघु दीर्घ अनिवार्य।

ब्रह्मवाद निर्विवाद
सामवेद कृष्णवाद
माननीय धन्यवाद
आत्म को सजाइए।

सार तत्व एक जान
ईश का अवश्य गान
स्नेह का रचो विधान
जिंदगी बनाइए।

नित्य जाग प्रेम राग
अर्थ से करो विराग
मोह लोभ त्याग भाग
काम को भगाइए।

तंत्र एक सभ्य जान
थोड़ को अथाह मान
तुष्ट हो बनो सुजान
विश्व को बचाइए।

राजनीति सावधान
योग संग ध्यान ज्ञान
प्रेम का पुनीत भान
लोक में जगाइए।

29…. जनहरण घनक्षरी (वार्णिक छंद)
चार पद, कुल 31 वर्ण, अंतिम वर्ण दीर्घ, अन्य सब लघु, पदों का क्रम: 8,8,8,7

पद मद करत न, सुघर सरस मन,
चपल बनत तन, तज मद रहिए।

जहर उगल मत, कथन मधुर सत,
प्रिय शुभ मधु हिय, धर कर कहिए।

मनुज सहजतम, रहत न मन तम,
वचन कहत जम, परहित करिए।

धरम करम प्रिय, मधु तरुवर हिय,
फलद जलद जिय, रसमय बनिए।

30…. दुर्मिल सवैया

कहना करना बस काम यही, हद में हर मानव जाति रहे।
मत नीच कुकृत्य कुकर्म बसे, मन से हर मानव भांति रहे।
सब दूषित भाव तजें दिल से, मत पाप समंदर वृत्ति बहे।
अति संयम का यह जीवन हो, हर मानव सुंदर सोच गहे।

मत लांघ कभी वह सीम सुनो, मत हानि पड़ोसन को पहुंचे।
जितना अपना हक है उससे, अति तोष करे सुख वृत्ति रचे।
मत कुत्सित भाव रहे मन में, गतिमानक पंथ सदा सुखदा।
करतूति बुरी विषबेलि सदा, इसका परिणाम सदा दुखदा।

31…. तुलसी छंद
मात्रा भार 30, चार पद, प्रत्येक पद में तीन चरण, चरण क्रम 10,8,12, कम से क प्रथम दो चरणांत सम तुकांत अंत में गुरु अनिवार्य।

गुरु सा जो भाई, सचमुच साई, मारग वही दिखाता।
वह दंडित करता, बातें कहता, निः स्वारथ बतलाता।
प्रिय ज्ञान पिलाता, निकट सुलाता, अनुजन को समझाता।
वह डाटत भी है, मारत भी है, किंतु स्नेह का नाता।

बड़ भ्राता सुलझा, कभी न उलझा, ज्ञान रत्न पहनाता।
सत राह प्रदर्शक, शिव दिग्दर्शक, अद्भुत रुप बनाता।
ज्ञानी विज्ञानी, अमृत दानी, जीवन वेद सुनाता।
देता संस्कारा, अनुपम प्यारा, सदा ज्येष्ठ हर भ्राता।

32…..कुंडलिया

जबतक प्रीति खिले नहीं, लगता देह मशान।
दिल से बहते प्रेम रस, में है मोदक शान।
में है मोदक शान, स्नेह की सरिता बनना।
मन से बहे सुगंध, गमकते हरदम चलना।
कहें मिश्र कविराय, जगत में पहुंचो सब तक।
बन गुलाब का फूल, रहे यह जीवन जबतक।।

जबतक मन में दान का, नहीं होय संचार।
तबतक मन दुर्भिक्ष है, अति दरिद्र व्यवहार।।
अति दरिद्र व्यवहार, दांत से धन को पकड़े।
धन संग्रह का जाल, उसे है प्रति पल जकड़े।।
कहें मिश्र कविराय, कृपड़ता मन में जब तक।
रहता मनुज पिशाच, नहीं संवेदन जबतक।।

33….. स्वर्णमुखी छंद (सानेट)

साधारण जीवन जीना है ।
दीनों की रक्षा में मन हो।
सभी जगह अपना दर्शन हो।
आजीवन गम को पीना है ।

प्रखर बुद्धि में मानवता हो।
ऊंचा पद ईमानदार हो।
मर्दानापन शानदार हो।
संरचना में नैतिकता हो।

करुणामृत रस की हाला हो।
सुंदर सुखद शांत मन महके।
भारतीय शुभ चिंतन गमके।
शोषणमुक्त विश्व प्याला हो।

पुनर्जागरण युग आ जाए।
भारत अपना रूप दिखाए।।

34….. तुलसी छंद
10/8/12

जिसका रघु रामा, उत्तम धामा, सभ्य सहज निष्कामा।
वह रम्य सुरम्या, मधुरिम दिव्या,, परम रत्न अभिरामा।
जो रमें राम में, बसे नाम में, वही भक्ति अधिकारी।
जो चले राम में, कहे राम से, वही संत आचारी।
जो राम जपन्ते, राह चलन्ते, वह रामचरित गाता।
रामेश्वर भजता, शिव शिव कहता, वह अव्यय सुख पाता।
मन में हैं रामा, तन में रामा, सियाराममय बनता।
देखत ब्रह्मेश्वर, प्रिय क्षीरेश्वर, गंगेश्वर को चलता।

35…. मधुमालती छंद
7,7,7, 7 मात्रा भार

सुनो आओ, नहीं जाओ, सुधा पाओ, भलाई है।
नहीं तोड़ो, कभी दिल को, नहीं इसमें, बुराई है।
फलों फूलो, बढ़ो आगे, सदा संगति, करो सत का।
बुलाता है, तुझे बंदा, चले आओ, बनो सब का।

सहजता में, छिपा निर्मल, मनुजता का, सदा शोभन।
यहां मधुमय, सहज रिश्ता, नहीं है कुछ, कहीं लोभन।
यहां शीतल, नदी विमला, बहा करती, रसालय सी।
यहीं दिव्या, सुखद संगति, सदा दिखती, सुधालय सी।

36…. मधुमालती छंद

नहीं आँखें, गिरातीं जल, नहीं दिल ही, समंदर है।
नहीं शुभ का, कहीं आलय, दिखा बस शव, बवंडर है।
सभी जी कर, मरा लगते, सभी में रस, भरा विष का।
नहीं मतलब, किसी से है, बहुत कायर, घटा विष का।

नहीं कोमल, मधुर भावन, सभी चालू, चतुर रहते।
बड़ाई खुद, किया करते, सदा मद में जिया करते।
नहीं देते, दिखाते हैं, सदा ठेंगा, मचलते हैं।
अगर लेते, नहीं देते, दरिंदा बन, मटकते हैं

37…. अमृतध्वनि छंद
मात्रा भर 24

मुड़कर देखा जो नहीं, चलता चढ़ा अनंत।
रचा अमर इतिहास वह, बना सिद्ध प्रिय संत।।
चिंता करता, नहीं किसी की, चलता जाता।
पीता रहता, नफरत हंसकर, गीत सुनाता।
पावन चिंतन, जग अभिनंदन, करता रहता।
सदा समर्पित, ध्यानावस्थित, सबकुछ सहता।

अवतारी वह पुरुष है, बुद्धिमान विद्वान।
पा सकता उसको नहीं, नीच पतित शैतान।।
आया जग में, सत्कर्मी बन, देता समुचित।
न्याय पंथ का, बड़ा पुजारी,सबसे परिचित।
राजनीति का, धर्म नीति का, वह शिव ज्ञाता।
नहीं बोलता, लक्ष्य देखता, सेवक दाता।

38….. मरहठा छंद
10/8/11

तुम हिंदुस्तानी, मीठा पानी, मधुर भाव से स्नेह।
भीतर बाहर से, सदा स्वच्छ हो, कुटिया अनुपम गेह।
जो चोरी करता, पापी बनता, सहता है अपमान।
जो हर प्राणी को, गले लगाता, रचाता हिंदुस्तान।

जो हिंदुस्तानी, खुद सम्मानी, रखता सबका ख्याल।
रक्षक का भावन, निर्मल पावन, मन में नहीं मलाल।
सेवा है मन में, ऊर्जा तन में, दया भाव ही धर्म।
सबका सहयोगी, बनना अच्छा, लगता जिमि सत्कर्म।

39…. वीर रस (आल्हा शैली)
मात्रा भार 16/15

वह विवेक से हीन मनुज है,
जिसका भूतों पर विश्वास।
नित करता चिंतन प्रेतों का,
दूषित आत्मा का अहसास।
ओझा शोखा के चक्कर में,
बन जाता है उनका दास।
स्वप्न देखता मरे जीव का,
ईश्वर से लेता संन्यास।
नर कंकाल डराते उसको,
वह जाता ओझा के पास।
हिचकी खा कर लौंग हाथ ले,
ओझा सदा खींचता श्वास।
कहता खड़ा प्रेत है सिर पर,
जाओ दे दो उसको धार।
अगले मंगल को फिर आना,
तब होगा उसका उपचार।
मत चिंता कर आते रहना,
तेरा भी होगा उद्धार।
हवन कराओ पैसा खर्चो ,
बार बार आओ इस द्वार।
प्रेत मांगता बलि बकरे की,
बकरे से है इसको प्यार।

ओझा शोखा के प्रपंच में,
फंस कर मुरख अति लाचार।
नहीं ईश का वंदन करता,
चेहरे पर है भूत सवार।
स्वयं भूत बन घूम रहा है,
सदा मचाता हाहाकार।
नहीं सोच है पावन निर्मल,
रखता मन में तुच्छ विचार।
नहीं पड़ोसी का शुभ चिंतक,
कलुषित मन करता व्यभिचार।
दूषित भाव प्रेत का सागर,
लांघ सिंधु जाओ उस पार।
जिसका भूतों में मन लगता,
वह फैलाता भ्रष्टाचार।
कभी न दाल प्रेत की गलती,
जहां शुद्ध शुभ शिष्टाचार।

40…. अमृत ध्वनि छंद
मात्रा भार 24

अतिशय दृढ़ विश्वास से, दर्शन देते राम।
सभी जगह मौजूद वे, कण कण उनका धाम।।
सर्व वही हैं, पर्व वही हैं, दृष्टि वही हैं।
अर्श वही हैं, फर्श वहीं हैं, सृष्टि वही हैं।
सदा सामने, नाचा करते, बातें करते।
नहीं छोड़ते, साथ निभाते, हरदम रहते।

श्रद्धा अरु विश्वास में, सदा समाये राम।
अति भावुक रघुनाथ से, पूर्ण होय हर काम।।
राम भजो तो, काम बनेगा, बनो राम का।
रहो संग में, राम गंग में, रहो राम का।
सियाराममय, जग बन जाए, दृष्टि जगेगी।
मन प्रसन्न हो, आत्मतोष हो, तृप्ति मिलेगी।

41…. मधु मालती छंद
7/7/7/7मात्रा भार, चार चरण का एक पद
कुल चार पद, लगागागा (1222)

चलोगे जब, बढ़ोगे तब, तभी तेरा, बनेगा जग।
मिलोगे जब, कहोगे जब, सुनेंगे सब, पड़ेंगे पग।
उठोगे जब, मचल कर तू, बढ़ा कर पग, जगत को छू।
नहीं हिम्मत, कभी हारो, बहादुर बन, गगन को छू।

अकेला चल, नही साथी, यहां कोई, दिखाई दे।
करो पूरा, मनोरथ तुम, स्वयं अपने, निजी बूते।
नहीं कोई, सहायक है, सहायक खुद, बनो अपना।
रहे चिंतन, नवल नूतन, सहज मोहक, खिले सपना।

42….. मिश्र कविराय की कुंडलिया

वादा का निर्वाह हो, तो वादा का अर्थ।
कोरा वादा मूर्खता, इसे समझना व्यर्थ।।
इसे समझना व्यर्थ, झूठ वादा धुर्ताई।
है यह मिथ्याचार, मूर्ख की यह चतुराई।।
कहें मिश्र कविराय, सरल हो जीवन सादा।
अपने को खुद तौल, और तब करना वादा।।

वादा करना धर्म है, इसका हो निर्वाह।
यदि वादा पूरा नहीं, तो यह पाप अथाह।।
तो यह पाप अथाह, नरक की राह दिखाता।
बनकर धोखेबाज, स्वयं उपहास कराता।।
कहें मिश्र कविराय, बहक कर बोल न ज्यादा।
नहीं अगर सामर्थ्य, भूलवश मत कर वादा।।

43…. सरसी छंद

पैसे को जो लक्ष्य समझता,
नहीं खर्च का नाम।
उसका जीवन व्यर्थ बीतता,
होता काम तमाम।
पूंजी करता सदा इकट्ठा,
देता कभी न दान।
धन संग्रह को धर्म समझता,
सदा अर्थ का गान।
पैसे की खातिर वह मरता,
पैसे में ही प्राण।
पैसा देख कूद पड़ता है,
उछल चलाता बाण।
जाप किया करता पैसे का,
पैसा ही भगवान।
सदा अर्थ के स्रोत ढूढता,
सतत बचत पर ध्यान।
निम्न कोटि का भोजन करता,
बड़ा कृपण इंसान।
आगंतुक को देख दुखी वह,
धन पिशाच शैतान।
मन से गंदा तन मलीन है,
है कूड़ा का ढेर।
चिरकुट जैसा रहन सहन है,
पर बनता है शेर।

44…. मिश्र कविराय की कुंडलिया

नाता रिश्ता प्रेममय, यह भावों की डोर।
भौतिक आंधी तोड़ती, भावुकता चहुओर।।
भावुकता चहुंओर, रो रही आज विलखती।
यहां सिर्फ पाषाण, खण्ड से पिटती जगती।।
कहें मिश्र कविराय, लगा है केवल ताता।
जिनका अपना अर्थ, स्वार्थ का केवल नाता।।

नाता नातेदार से, भूल रहे हैं लोग।
क्षरण हो रहा भाव का, है प्रधान बस भोग।।
है प्रधान बस भोग, दंभ का भाव बढ़ा है।
खिसक गई है चूल, दनुज मन ज्वार चढ़ा है।।
कहें मिश्र कविराय, मनुज उसको अपनाता।
जिससे मिलता लाभ, उसी से रिश्ता नाता।।

45…. मधु मालती छंद
7/7/7/7

उसे त्यागो, नहीं ठहरो, जहां दूषित, बसेरा हो।
नहीं जाना, जगह पर उस, जहां दिखता, अंधेरा हो।
भले एकल, बने रहना, सदा बैठो, किनारे पर।
रहे मन में, सहज उत्सव, रमो प्रिय के, सहारे पर।

बनो निर्मल, सफा धारा, चले जाओ, स्वयं बहते।
सहज अविरल, बने चलना, परम प्रिय को, सदा भजते।
नहीं छोड़ो, कभी रास्ता, दिशा उत्तम, सदा पूरब।
बनो गंगा, परम पावन, लगोगे तुम, सहज प्रिय तब।

46…. त्रिभंगी छंद
10/8/8/6

जाओ तो जाओ, कभी न आओ, नहीं बुलाओ, अब भूलो।
अब इसको छोड़ो, मुंह को मोड़ो, देख कभी मत, दिल सी लो।
मत याद करो तुम, मन से बाहर, कभी न अंदर, तुम करना।
इतिहास बनेगा, यह अक्षर है, इस बंदा को, मत पढ़ना।

लिखना मत इस पर, गणना मत कर, पन्ना पलटो, बढ़ आगे।
स्वीकार न करना, मन से हटना, बाहर करना, दिल त्यागे।
यह बने कहानी, नहीं सुहानी, नहीं रवानी, दूर हटो।
अब इसको छोड़ो, नाता तोड़ो, गांठ न जोड़ो, वैरागी।
इसको जाने दो, मर जाने दो, यह भागेगा, वितरागी।

47…. विधाता छंद

भयानक सिंधु यह दुनिया, भयंकर जीव रहते हैं।
भयंकर वृत्ति कामातुर, भयानक रूप चरते हैं।
भयानक मन सदा चंचल, व्यसन का भोग करता है।
भयंकर तन सहज पागल, अचानक टूट पड़ता है।

वही बचता दुराग्रह से, विवेकी जो सदा रहता।
सतत निग्रह किया करता, नियम अनुरूप जो चलता।
गलत से जो डरा करता, सदा सत्यार्थ जीता है।
वही मस्ती भरा मधु रस, निरंतर पेय पीता है।

48…. विधाता छंद

नहीं सुख की करो आशा, यही दुख का महत कारण।
जपो समता बनो रमता, करो सम भाव का पारणा।
नहीं मन को बहकने दो, चलो सीधा सदा सादा।
व्यवस्थित रख सकल जीवन, सुखों में खुश न हो ज्यादा।

दुखों के सिंधु को हंस कर, सदा तुम पार करते जा।
सदा संघर्ष करते बढ़, सहज मुश्किल से लड़ते जा।
कठिन हो राह पर इसको, सदा आसान कहना है।
जरा या रोग से डर मत, सदा बलवान बनना है।

49…. नूतन छंद
4/6/6/6

दिल में, शिव गंगा, शुभ अंगा, प्रिय योगा।
मन हो, जब पावन, आराधन, मधु भोगा।
सुनकर, सब सुंदर, अति प्रियकर, मन नाचत।
रट रट, मन जपता, मधु चखता, तन जागत।

भज मन, शिव प्यारा, अति न्यारा, कैलाशी।
जप कर, नित तप कर, चल पावन, शिवकाशी।
सज धज, कर चलना, नित रहना, शंकर में।
आशा, तुम बन कर, लगे रहो, शंकर में।

50…. कुंडलियां

आवत देखत मित्र को, सज्जन हर्षित होय।
गले लगाता प्रेम से, अहंकार को खोय।।
अहंकार को खोय, सुजन बनता अति पावन।
मेहमान है मीत, यही चिंतन मनभावन।।
कहें मिश्र कविराय, हृदय खुश हो कर गावत।
नैनों में है स्नेह, मित्र जब घर पर आवत।।

मानव मानव सा रहे, बने कभी न भुजंग।
शुचिता के प्रिय देश में, रह कर छाने भंग।।
रह कर छाने भंग, मस्त हो सबको चूमे।
सहयोगी सद्भाव, रखे पृथ्वी पर घूमे।।
कहें मिश्र कविराय, नहिं आदर्श है दानव।
सर्वोत्तम है योनि, बनो देवों सा मानव।।

51…. अभिनव छंद
8/8/6

आग बुझाओ, नहीं लगाओ, सुन प्यारे।
शीतल चंदा, बनना सीखो, रह न्यारे।
छू अंबर को, चल अंतर को, हरिद्वारे।
गलत सुनो मत, गलत कहो मत, बन तारे।

प्यारा सपना, अनुदिन जपना, शुभ कहना।
मन से उज्ज्वल, दिल से कोमल, शिव बनना।
रहो सुवासित, सदा सुगंधित, जग को कर।
शुद्ध नीर बन, गंग यमुन जिमि, लग मनहर।

52…. तुलसी छंद
10/8)12

यदि हो शंका तो, समाधान कर, अनुमानों में जागें।
हो तर्क परायण, बुद्धि घुमाओ, रख प्रमाण को आगे।
मन को समझाओ, ज्ञान जगाओ, तिमिरांचल तब भागे।
तुम बनो प्रयोगी, उत्तम योगी, मन विवेक तब आगे।

बन चलो निराला, प्रिय मतवाला, दत्त चित्त हो करना।
ले कर में प्याला, पीना हाला, उत्साहित हो चलना।
मत आलस करना, योगी बनना, वैज्ञानिक हो भाषा।
अतिशाय सुबुद्धता, ज्ञान शुद्धता, की गढ़ना परिभाषा।

तुम क्रमशः बढ़ना, चिंतन करना, अवलोकन अपनाना।
तथ्यों का संग्रह, मोहक विग्रह, विश्लेषण पर ध्याना।
मधु वर्ग बनाओ, पुष्प सजाओ, संबंधों की माला।
चरणों में क्रम हो, सुखद मरम हो, खोज ज्ञान का प्याला।

53…. मरहठा छंद
10/8/11

जब भी मन जागे, प्रभु में लागे, ईश्वर से ही नेह।
यह स्थिति प्रिय उत्तम, अतिशय अनुपम, राम नाम ही गेह।
जब मन अति शुद्धम, दिव्य विशुद्धम, राम दिखाते रूप।
प्रिय भक्त सुरक्षित, नित संरक्षित, नहिं गिरता भव कूप।

प्रभु को मन भजता, नियमित जपता, मोक्ष धाम में वास।
मन सुमन सजल है, विमल धवल है, सियाराम का दास।
प्रभु की वह लीला, बहुत रसीला, सहज देखता नित्य।
नहिं कुछ भी मांगत, प्रभु ही राहत, राम कृपा अति दिव्य।

54…. मेरी मोहक मधुशाला

जीता वह जो पीता हाला, चलता बनकर मतवाला;
करुणा के सागर में डूबा, बनता जग का रखवाला;
यह इसका जीवन कौशल प्रिय, मधुर भाव का रक्षक है;
पीने का आनंद उठाकर, सबको देता सुख प्याला।

करुण भाव से हीन मनुज को, कौन कहे पीनेवाला?
जिसमें यह रस धार नहीं है, कभी न होगा मतवाला;
आंखों में आंसू की हाला, जिसमें नहीं सुशोभित है;
रच सकता है क्या वह सुंदर, मादक मोहक मधुशाला?

55…. त्रिभंगी छंद
10/8/8/6

आना मिलने को, प्रिय बनने को, सुख करने को, आ जाना।
तुम नयन मिलाना, गीत सुनाना, भाव दिखाने, चल आना।
संकोच न करना, कभी न डरना, निर्भय हो कर, मीत बनो।
आ हाथ मिलाओ, गले लगाओ, हार बनाओ, बात सुनो।

दिल में मत रखना, खुलकर कहना, मित्र समझना, सुन प्यारे।
हर बात सुनाना, दिल बहलाना, सदा रिझाना, आ द्वारे।
हो प्रेम परस्पर, बढ़े निरंतर, वृत्ति स्वतंतर, मनभावन।
उठ चलकर आना, साथ निभाना, रच बस जाना, बन सावन।

56…. मधु मालती छंद
7/7/7/7 मापनी…1222

सफल जीवन, उसी का है, नहीं है मद, भरा जिसमें।
सरल बनकर, सदा जीता, सहजता है, भरी ,उसमें।
किया करता, बड़ाई वह, नहीं धोखा, कभी देता।
चहेता बन, सदा रहता, किसी से कुछ, नहीं लेता।

दिया करता, स्वयं कुछ भी, यही इच्छा, जताता है।
पिया करता, सभी का मद, अंधेरा को, मिटाता है।
चढ़ाता वह, सहज प्रेमिल, सुघर चादर, सजाता है।
सदा प्रतिमा, बना मोहक, मधुर वंशी, बजाता है।

57…. विधाता छंद

रहम जिसके हृदय में है, वही इंसान बनता है।
चलाता तीर कटुता का, दनूज शैतान दिखता है।
जहां है धर्म की नैया, वही इंसानियत रहती।
जहां है द्वेष का पतझड़, वहीं हैवानियत जगती।

दया के सिंधु में बहता, गुलाबी फूल मुस्काता।
सुगंधित वायु का कर्षण, सकल संसार को भाता।
रहें आंखें सदा नम यदि, वहीं घन श्याम रहते हैं।
बनाकर देव को विजयी, असुर पर वार करते हैं।

58..…. वीर छंद (आल्हा शैली)

वही मित्र जो मित्र धर्म का,
करता रहता है निर्वाह।
हर स्थिति में साथ निभाता,
मन में रहती बस यह चाह।
सुख दुख का वह साथी बनता,
मित्र नीति की बस परवाह।
हृदय भरा है सहज प्रेम से,
मन में अति मोहक उत्साह।
दो लोगों की देख मित्रता,
जल भुन जाते कुटिल विचार।
सदा चाहते उन्हें फोड़ना,
करते रहते प्रति क्षण वार।
राजनीति खेला करते हैं,
किंतु स्वयं खाते वे मार।
ऊपर से शुभ चिंतक बनते,
भीतर से विष कुटिल कटार।
परम निहायत अवसरवादी,
कहते खुद को नम्बरदार।
बेहया बनकर दौड़ लगते,
तिकड़म करते बारम्बार।
मुंह की खाते गिरते पड़ते,
बहुत बेशरम अति बेकार।
नहीं जानते मित्र प्रीति को,
केवल करते गंदाचार।
मित्र बड़ा सबसे इस जग में,
नहीं मानते वे यह बात।
अपना उल्लू सीधा करते,
धोखे से करते आघात।
शक्ति प्रदर्शन के चक्कर में,
सदा लगे रहते दिन रात।
नीच पतित बदनाम दुष्ट वे,
दिखलाते सबको औकात।
मिल जाता जब सवा शेर तब,
पूंछ छिपाकर जाते भाग।
फिर भी मौन नहीं वे रहते,
छोड़ा करते दूषित झाग।
सड़ियल कुत्ते ये समाज के,
भूक भूक कर गाते फाग।
नहीं भरोसा के ये लायक,
चेहरे पर है काला दाग।
नहीं जानते मित्र चीज क्या?
इनको पैसे से है प्यार।
स्वार्थी अघ पिशाच राक्षस ये,
इनके जीवन को धिक्कार।

59…. विधाता छंद

जहां प्रिय का मिलन होता, वहीं ससुराल सा लगता।
वहीं मेला सुघर मोहक, सुखद मधु जाल सा बनता।
जहां प्रिय दे सुभग दर्शन, वहीं हरि धाम बन जाता।
वहीं दिल में लिपटते, प्रेम का उपहार मिल जाता।

जहां प्रिय स्पर्श करता है, वहीं आनंद मुस्काता।
चला आता लिए पैगाम, प्रेमिल गीत मधु गाता।
जहां प्रिय कर मिलाता हैं, गले का हार बन जाता।
वहीं पर आत्म का दर्शन, सहज साकार मिल जाता।

60….. विधाता छंद

नहीं आनंदमय रस का, कभी वह पान कर पाता।
जला करता पराये से, नहीं मधु पान कर पाता।
घृणा करता सदा सच से, नहीं मस्तान बन पाता।
किया करता भलाई जो, वही उत्थान कर पाता।

जिसे है प्यार नफरत से, भला इंसान क्या होगा?
गलत को जो सही कहता, सदा शैतान वह होगा।
जिसे है प्रेम हिंसा से, वही आतंक करता है।
अहिंसा धर्म का उपदेश, सबको अंक भरता है।

61….. विधाता छंद

चलाना ज्ञान का जादू, सहज सद्गुरु सिखाता है।
पकड़ कर अंगुली जड़ से, सदा शिव पथ दिखाता है।
नहीं कुछ भेद मन में है, पढ़ाता वेद सबको है।
दिखाता ज्ञान का सागर, कराता भान जग को है।

अगर गुरुवर सफल वेत्ता, कुशल वक्ता विरागी हैं।
स्वयं पढ़ते पढ़ाते हैं, सदा निष्काम त्यागी हैं।
बड़े सौभाग्य से पाता, सहज ही शिष्य गुरु ज्ञानी।
सरलता से ग्रहण करता, सकल शिक्षा वटुक ध्यानी।

62….. मधु मालती छंद

सुनाओ तुम, बताओ अब, दिखाते चल, सकल कौशल।
चले चलना, हृदय रहना, सबल दिखना, बनो कोमल
मुलायम सा, सहज निर्मल, विमलता हो, बहुत पावन।
बरसना तुम, सदा उर में, लगे मोहक, मधुर सावन।

जिधर जाओ, उधर देखूं, तुम्हारा पथ, बने मंजिल।
नहीं रुकना, चला करना, सदा रहना, बने हमदिल ।
निवारण हो, समस्या का, विधाता बन, सतत रहना ।
पुकारूं तो, सुनो मन की, हृदय क्रंदन, सदा सुनना।

63….. विधाता छंद

नहीं चुप हो कभी बैठो, नहीं आलस्य करना है।
भगीरथ बन हमेशा चल, धरा पर गंग रचना है।
मिली है जिंदगी ऐसी, सदा शुभ कर्म करना है।
बहे बस प्रेम की धारा, इसी में नित्य बहना है।

नहीं हो पेट की पूजा, कभी मत अर्थ का लालच।
बहो निर्द्वंद्व भावों में, सदा तुम द्वंद्व से जा बच।
फकीरी में सदा जीना, यही मस्ती निराली है।
भगा जो लोक के पीछे, उसी की रात काली है।

64…. मरहठा छंद
10/8/11

हे रास रचैया, कृष्ण कन्हैया, वृंदावन की शान।
तुम नृत्य करो अब, देखें गोपी, तुझ पर हैं कुर्वान।
वंशी ले आओ, खूब बजाओ, चेहरे पर मुस्कान।
गोपी बालाएं, धूम मचाएं, छेड़ें मोहक तान।

तुम चित्त चुराते, मन बहलाते, सहज प्रेम का दान।
नित अंतः पुर में, सबके उर में, बने हुए रसखान।
मधु प्रीति पिलाते, मर्म बताते, देते सबको ज्ञान।
तुम एक अनंता, अथक चलंता, तुमसे ही उत्थान।।

65….. मधु मालती छंद
7/7/7/7

अगर बनना, तुझे है वट, सदा छाया, बनो सबकी।
करो खुश तुम, सहज सबको, झुके चलना, सुनो सबकी।
फलद बन तुम, खड़े रहना, सभी को मधु, पिलाते चल।
रहे आशा, यही मन में, सदा भूतल, रहे अविचल।

अगर बनना, महातम है, रहे निर्मल, सहज भावन।
तपस्या कर, दमन मन का, बनाओ जग, मधुर पावन।
करो अपनी,सदा काया, विमल उज्ज्वल, बनो मोहक।
जगत का हित, रहे ऊपर, बनो उत्तम, महा बोधक।

66…. शक्ति छंद
122 122 122 12

दुबारा न हो इस तरह कुछ कभी।
सुधरना अगर हो समय है अभी।
कटुक मत बनो तुम चलो पंथ धर।
करो सत्य की खोज जाओ सुधर।

कुसंगति कभी भी नहीं ठीक है।
बुरी बात हरदम सहज फीक है।
रहे साथ उत्तम सरल संत का।
मिटे काल दूषित सदा अंत का।

67….. शिव छंद
प्रत्येक पद का मात्रा भार 11, दीर्घ से प्रारंभ, दीर्घ पर अंत
चार पद,, दो दो पद तुकांत या चारो भी तुकांत हो सकते है।

राम वन गमन किए।
मातृ भूमि तज गए।
साथ में लखन सिए।
वन्य रूप धर लिए।

देह वीर भूमि सा।
धीर मन प्रभुत्व था।
आरती सभी किए।
हर्ष राम के लिए।

राम स्वाभिमान थे।
दृश्यमान ज्ञान थे।
धर्म कर्म स्थापना।
थी यहीं सुकामना।

दानवी प्रवृत्ति को।
चाल निंद्य वृत्ति को।
मारते बिगाड़ते।
संत नित्य साजते।

लंक का दहन किए।
मर्म को बता दिए।
सत्यवाद के लिए।
धन्यवाद पा लिए।

68….. शिव छंद

साम दाम दण्ड का।
भेद छेद नीतिका।
राजनीति सीख लो।
सावधान हो चलो।

वीरता अमोल है।
धृष्टत कुबोल है।
धीर बन बढ़े चलो।
फूल बन सदा फलों।

आसरा बनो सदा।
भार मत बनो कदा।
ज्यादती करो नहीं।
काम कर सदा सही।

नीति मन सुबुद्ध हो।
योजना प्रबुद्ध हो।
तोड़ दो कुचाल को।
उच्च देख भाल को।

फेल कर कुनीति को।
मार दो अनीति को।
ज्ञान संधि हो सदा।
पार्थ भाव सर्वदा।

69….. शिव छंद
21 21 21 2 (कुल 11 मात्रा भार)

सत्य प्रिय प्रदेश हो।
आदि अंत एक हो।
चाल सभ्य स्वस्थ हो।
दृश्य निंद्य अस्त हो।

आरती सुकर्म की।
भांति भांति पूज्य की।
पीत वस्त्र प्रिय लगे।
देह भोग अब भगे।

नाप तौल बोलना।
सत्य राह डोलना।
हाल पूछते चलो।
सिर झुका बढ़ो फलो।

निंदनीय त्यागना।
स्तुत्य भाव मांगना।
शुद्ध शब्दकोश हो।
राष्ट्र प्रेम होश हो।

नीर में पवित्रता।
दृष्टि स्वच्छ इत्रता।
दाग सब मिटें सदा।
सुंदरम लगे अदा।

70….. मदिरा सवैया (वर्णिक)
7 भगण+गुरु

राघव राम चलावत बाणन, मारता काटत दैत्य सभी।
तीर कमान सदा कर लेकर, देखत डोलत ताड़त भी।
कांपत लोटत पोटत दानव, देख सुदर्शन चक्र तभी।
सोचत आवत है अब संकट, मृत्यु समीप न दूर अभी।

संतन के रघुनायक रक्षक, भक्षक दानव के बनते।
वीर बहादुर शक्ति धरातल, मौन सदा रहते चलते।
धर्मविरुद्ध रहे यदि दानव, धूल चटावत वे रहते।
संगति सज्जन की अति सुंदर, निर्मल नीर बने बहते।

71….. सरसिज छंद
11/16 मात्रा भार

करो नहीं अभिमान,
शांति निकेतन बनकर दिखना।
स्वाभिमान का भान,
अपने आदर्शों को लिखना।
बनना स्वयं सुलेख,
भू मंडल पर सदा चमकना।
नियमबद्ध आलेख,
वैयाकरणी बनकर चलना।
होना नहीं हताश,
हिम्मत से आगे को बढ़ना।
होता वहीं निराश,
नहीं जनता है जो चलना।
जिसमें में है उत्साह,
वही नियोजन उत्तम करता।
पा जाता है राह,
क्रमशः आगे को वह बढ़ता।
दृढ़ निश्चय मत त्याग,
सदा प्रतिज्ञा पूरी होगी।
रहे कर्म में राग,
बन जाना साधक शिव योगी ।

72…. मनहरण घनाक्षरी (वार्णिक)

प्यार का कमाल यह,
स्वर्ग सिंधु नित्य बह ,
दोष दृष्टि त्याग कर,
नित्य मुस्कराइए।

डूब जाओ अंत तक,
देख लो बसंत तक,
जिंदगी का अर्थ यह,
दिल में सजाइए।

चूम लो सर्वांग तन,
प्रीति भाव को नमन,
विश्व स्नेह दृष्टि नित्य,
मन में जगाइए।

छोड़ तुम सवाल को,
त्याग कर मलाल को,
प्रीति उत्तरा सदैव,
हाथ को मिलाइए।

सोख लो समुद्र को,
तुष्ट कर गरीब को,
रास रस पान कर,
प्रेम घाट जाइए।

स्तुत्य सर्व कर्म कर,
दिल को दुखी न कर,
जीभ पर सुधा रहे,
पास में बुलाइए।

चाह में तरंग भाव,
देह में उमंग नाव,
रंग में चमक दिखे,
सुप्त को जगाइए।

73….. मनहरण घनाक्षरी

प्रेम को समझ सदा,
त्याग रूप यह जुदा,
शिष्ट भाव मूर्ति यह,
ज्ञान को जगाइए।

खोज चल अधीर हो,
देख बढ़ सुधीर हो,
एक एक तत्त्व खोज,
अग्र अग्र जाइए।

देख साहचर्य नित्य,
आस पास दिव्य प्रीत्य,
चेतना भरी हुई है,
विश्व को बताइए।

ब्रह्म लोक प्रीतिमय,
देह आत्म विश्वमय,
पिण्ड में समग्र देख,
सूक्ष्म को सजाइए।

प्रेम को समझ सही,
दिव्य भावमय यही,
अंग अंग प्रेममय,
दिल में समाइए।

हक सभी का है यहां,
मार्ग प्रिय सुगंध सा,
शिष्ट पंथ शुष्ठ सौम्य,
मन में बसाइए।

दोष मुक्त बन रहो,
साफ पाक बात कहो,
दूर हो प्रपंच छल,
सबको नचाइए।

74…. मत्तगयंद/मालती सवैया
211 211 211 211,211 211 211 22

याचक भाव तजो मन से नित, दान स्वभाव विकास करो रे।
देन चहो सबको कुछ तो तुम, हाथ मिलाय प्रसन्न रहो रे।
सुंदर चिंतन हो सबके प्रति, वृत्ति अपावन दोष हरो रे।
जोश भरो सबके मन में प्रिय, उत्तम राय बताय चलो रे।

तोड़ न दो दिल कोमल को तुम, रक्षक हो कर काम करो रे।
आवन का यह अर्थ सही सुन, मानसरोवर धाम रचो रे।
ध्यान रहे सबके प्रति मोहक, मान बढ़ावत नित्य जगो रे।
हानि नही बस लाभ करो नित, भव्य सुशील सुसभ्य बनो रे।

75…. छंद
21 21 21 21

चाल में सुगंध होय।
काल में सुकाल बोय ।
तान में मधुर स्वराज।
प्रेम को अजेय साज।

चाल ढाल मस्त मस्त।
दूर दृष्टि स्वस्थ स्वस्थ।
दोष दृष्टि मार मार।
रोग कष्ट तार तार।

नाज हो सुकर्मदार ।
राज हो अनंत बार।
आत्म भाव जोरदार।
प्रीति नाद बार बार।

श्वेत रंग सत्यनिष्ठ।
सत्व रूप में प्रविष्ट।
रूप धूप काट छांट।
धन्यवाद बांट बांट।

सज्जनानुराग जाग।
नीच भाव राग त्याग।
अंतहीन नेह भाव।
धो रहा सदैव घाव।

76…. मीरा छंद
12 12 11

चलो वहां पर,
सदा बहा कर,
धरम धरा धर,
रचो सुघर घर।

बहो निरंतर,
दिखो स्वतंतर,
चलो अनंतर,
बनो दिगंबर।

फले स्वयंवर,
रहें सुभग वर,
भगें भयंकर,
जगें मधुर नर।

हृदय परस्पर,
मिले चला कर,
दिखे मिला कर,
खिले सजा कर।

कनक लता बन,
सुमन बने मन,
सुखी रहे तन,
दुखी न हों जन।

नहीं मिलावट,
सरल सजावट,
नहीं बनावट,
सुघर लिखावट।

77…. मीरा छंद (मात्रिक)
12 12 11

पकड़ चलो अब,
भरो जखम सब,
नमन करूं अब,
दया करो तब।

सुनो सुना कर,
मदद किया कर,
फरज निभा कर,
चलो मिला कर।

रहम धरम यह,
करम मरम यह,
उठो चला कर,
नहीं शरम कर।

निकट रहो अब,
अलख जगे तब,
मलिन न हो मन,
सदा सत वचन।

जहर नहीं बन,
अमर सजल मन,
नयन रहे नम,
भगे निलज तम।

78…. मनहरण घनाक्ष्ररी

हाथ में तिरंग देख,
राष्ट्र गान दिव्य लेख,
भारतीय भाव भोर,
देश को जगाइए।

धर्मवाद कर्मवाद,
हो नहीं कभी विवाद,
अग्रदूत शांतिदूत,
भारती पुजाइए।

निर्विवाद राम श्याम,
संत हेतु सर्व काम,
भव्य दृष्टि कोण ज्ञान,
विश्व को बताइए।

रंग रूप हो सुडौल,
माधवी विचार बोल,
कृत्य स्तुत्य गर्मजोश,
जिंदगी बनाइए।

मस्त मस्त चाल होय,
स्वस्थ स्वस्थ बीज बोय,
धारणा अजानबाहु,
राघवेंद्र लाइए।

तप प्रधान देश है,
विदेश भी स्वदेश है,
विश्व भाव भारतीय,
प्रेम गीत गाइए।

मूल्य का प्रभाव देख,
मोहमुक्त है सुलेख,
सप्त रंग से खिला है,
एक रंग पाइए।

79…. मंजु छंद/शिव छंद
21 21 21 2

प्यार का जतन करो।
पाप का पतन करो।
भाव में प्रवाह हो।
पावनी बहाव हो।

प्रीति में मगन रहो।
वायु बन गगन बहो।
स्नेह का कथन कहो।
धर्म ध्वज सदा गहो।

लालना करे यही।
पालना करे यही।
दीनवंधु देवता।
विश्व नित्य सेवता।

गंग की तरंग है।
बीज ब्रह्म रंग है।
आन बान शान है।
दर्शनीय जान है।

चूम चूम झूम झूम।
हंस चाल घूम घूम।
फेरियां लगें सदा।
भाव साज सर्वदा।

नव्यता प्रवीण हो।
भव्य स्वच्छ वीण हो।
लीन मन सदा रहे।
प्रीति रस सदा बहे।

80…. अमृत ध्वनि छंद
मात्रा भार 24

रामेश्वर के भजन से, कटते मन के पाप।
जपो नित्य सुमिरन करो, मिटे सर्व संताप।।

राम देवता, शंभु खेवता, जग के पालक।
दुख को हरते, चंगा करते, अतिशय व्यापक।।
सच के रक्षक, जगत निरीक्षक, अति प्रिय न्यायिक।
बिन पग चलते, सब कुछ करते, हैं नहिं कायिक।।

रामेश्वर में राम जी, प्रिय शंकर का वास।
एक दूसरे में उभय, करते सहज निवास।।

राम भजन कर, शिव को जप कर, चल रामेश्वर।
शिव में रामा, पावन धामा, भज रामेश्वर।।
युग्म प्रबल द्वय, सदा समाए, प्रिय एकेश्वर।
गंग क्षीर में, काश्य नीर में, जप क्षीरेश्वर ।।

Language: Hindi
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