ज़िन्दगी में हर रिश्ते का,
ए अजनबी तूने मुझे क्या से क्या बना दिया
माना मैं उसके घर नहीं जाता,
सांसों का थम जाना ही मौत नहीं होता है
एक ही ज़िंदगी में कई बार मरते हैं हम!
रावण जी होना चाहता हूं / मुसाफिर बैठा
कर्ज जिसका है वही ढोए उठाए।
రామయ్య మా రామయ్య
डॉ गुंडाल विजय कुमार 'विजय'
सुनो सुनाऊॅ॑ अनसुनी कहानी
रस्म उल्फत की यह एक गुनाह में हर बार करु।
जो रिश्ते दिल में पला करते हैं
हँसूँगा हर घड़ी पर इतना सा वादा करो मुझसे
ग़र वो जानना चाहतें तो बताते हम भी,