17. सकून
वह चढ़ रहा है सीढ़ियाँ
एक के बाद एक
ऊपर जा रहा है वो
मैं खड़ा ,चढ़ते उसे
देख रहा हूं
वह चढ रहा है
क्षितिज की ओर।
मैं ?
ताक रहा हूं उसे –
खड़ा वहीं ज़मी पर ।
सोच रहा हूं —
वह कैसे चढ़ता जा रहा है
लगातार ?
चढ़ना तो आता है मुझे भी
फिर क्यों ?
कदम आगे नहीं बढ़ रहा ?
वह चढ रहा है सीढ़ियाँ
प्रयासरत होकर ।
मैं ?
गिरने के भए से
कांप रहा हूं ।
डूबा जा रहा हूं
इसी सोच में
रोकूं उसे कैसे ?
पर नहीं ‘
आगे बढ़ते कदम।
सकून आता है तभी,
खींच लेता हूं जब वह सीढ़ियाँ-
और उसे–
औंधे मुंह गिरते देखता हूं।
——-***—-