101…. छंद रत्नाकर
101…. छंद रत्नाकर
8/8/8/11
जो जलता है, वह चलता है, अवनति पथ पर, होता है क्षतिग्रस्त।
जो हितकारी, वह अधिकारी, सदा सारथी, कभी न होता अस्त।।
करुणा सरिता, आत्मा वनिता, लिखती कविता, बहती मार्मिक धार।
कलम चले अब, लिखे अनवरत, छंद शिरोमणि, महा काव्यमय प्यार।।
मुख मुस्काए, सहज लुभाए, स्वर्ग बनाए, चुंबक हो संसार।
भगे कालिमा, दिखे लालिमा, स्वर्णमुखी का, हो क्रमशः विस्तार।।
मिथ्या दर्शन, झूठ प्रदर्शन, गंदा चिंतन, है असुरों की राह।
शंकर मंथन, चमकत कंचन, मोहक मंचन, की सब में हो चाह।।
गलत भावना, पतित कामना, क्रूर साधना, का कर डालो अंत।
चमन खिलेगा, उर महकेगा, चंदन कानन, में देखो प्रिय संत।।
अंतिम मानव, पूजनीय हो, वंदनीय हो, पाए वह सम्मान।
उसी एक को, स्नेह जताओ, गले लगाओ, रखना दिल से ध्यान।।
102 …. छंद रत्नाकर
8/8/8/8/11
जिसको प्रिय है,अच्छी संगति, वह आतुर हो, चल देता है, पाने को सत्संग।
मन उत्साहित, मधु आच्छादित, हृदय सुवासित, वदन चहकता, नृत्य करे हर अंग।।
साधु समाना, वृत्ति मनोरम, भावुक अनुपम, सहज दिव्यमय, उर में है उत्साह।।
चल देता है, छोड़ गृहस्थी, सारी माया, सब परिजन को, सिर्फ शुभद की चाह।।
बिन शंका के, भर अंका में, शांति भाव को, स्नेह साज को, वह देखे शिव लोक।
सत्य समर्पित, तन मन अर्पित, ध्यान सुसज्जित, ज्ञान पान को, जाता बना अशोक।।
सदा तरंगित, सहज उमंगित, हेतु समुन्नति, शिव गति पाना, है उसका प्रिय ध्येय।
ईश कृपा से, जन्म जन्म की, पुण्य कथा से, भाग्य विधाता, को जाता यह श्रेय।।
103…. मनहरण घनाक्षरी (वर्णिक)
8/8/8/7
अंतिम वर्ण दीर्घ
क्रांति दूत अग्र दूत, वीर धीर हीर पूत,
जागरूक है पथिक , शीश को झुकाइए।
काल को बेकार जान, मृत्यु को बेजान मान,
दृढ़ प्रतिज्ञ शूर को, नित्य नव्य चाहिए।
सोच साफ स्वच्छ होत, धारदार वक्ष पोत,
शान है सुडौलदार, मान को बढ़ाइए।
कथ्य कर्म एक सम, साध्य साधना सुगम,
नवीनता के जोश में, देव गीत गाइए।
कुछ अता पता नहीं, मौन कृत्य शुभ सही,
धैर्य धर्म नीति भव्य, भाव को जगाइए।
ज्ञानवान बुद्धिमान, प्राणवान भग्यमान,
कर्मयोग अस्त्र शस्त्र, को सदा मनाइए।
उमंग ही उमंग है, चटकदार रंग है,
वीर बढ़ रहा सदा, आप साथ आइए।
104…. मनहरण घनाक्षरी
नमामि मातृ शारदे, प्रणम्य दिव्य ज्ञानदे, भजामि हंसवाहिनी, नित्य वंदनीय मां।
चिंतना प्रकांड मात, वंदना सदा प्रभात, रोम रोम में निवास, स्तुत्य पूजनीय मां।
दीर्घ सुक्ष्म प्रेम गात, नव्य भव्य सुप्रभात, मीठ मीठ बोल भाष, सुविचारणीय मां।
साधना अनंत बार, कामना सुधा सवार, शब्द ब्रह्म का प्रचार, ग्रंथ लेखनीय मां।
शुद्ध भाव निर्मला, असीम प्यार शीतला, वेद पूर्व आदि अंत, शास्त्र साधनीय मां।
सदा कृपा प्रदायिनी, सत विवेक गामिनी, श्वेत वस्त्र धारिणी ही, ग्राह्य सोचनीय मां।
ओम नाम रूप जान, सर्व विज्ञ सिद्ध मान, तंत्र मंत्र यंत्र ध्यान, पर्व वांछनीय मां।
105….. छंद रत्नाकर
8/8/8/8/8
अतिशय मुश्किल, यह लगता है, प्यार किसी का, सच में पाना, जगह बनाना।
सभी मतलबी, कोई अपना, यहां नहीं है, इस दुनिया को, सच में जाना।।
सब स्स्वारथ में, गिरे हुए हैं, अंधे लगते, भौतिकवादी, बात सही है।
सबकी चाहत, केवल पैसा, और नहीं कुछ, धन ही ईश्वर, स्नेह नहीं है।।
सावधान सब, मन अभिमानी, है चालाकी, हृदयशून्यता, नहिं भावुकता।
सरिता सूखी, कविता रूखी, शब्द जाल है, भाव नहीं है, अधिक दीनता।।
यहां उचक्के, घूमा करते, अर्थ पिपासू, धन को केवल, चूमा करते।
हृदय नदारद, क्रूर पेशियाँ, नित्य भयानक, नाग राज बस, घूमा करते।।
दौलत है पर, यहाँ दरिंदे, नहीं परिंदे, जिसकी वाणी, में कोमलता ।
प्यार तुच्छ अति, अवसरवादी, नहिं मधुवादी, नहीं मधुरता।।
मन दूषित है, दुख पोषित है, यहां प्रदर्शन, विचलित दर्शन, प्रेम नहीं है।
आतुर तन में,भोग वासना, केवल दिखता, देह प्रदर्शन, सर्व सही है।।
106…. छंद प्रभाकर
8/8/8/8/8/8
छंद प्रभाकर, दिव्य सुधाकर, सत्य सरासर, जगत उजागर, रहता आकर, ज्योति जलाता।
आभा प्यारी, सदा दुलारी, अति मनहारी, खुश नर नारी, सकल जगत यह, मधु सुख पाता।।
कोरा कागज, रंग बिरंगा, बन जाता है, जब जब उस पर, सूर्य चमकता, कविता लिखता।
किरण विखेरत, चिंतन सेवत, घूमा करता, चलता रहता, आत्म परिधि पर, कवि बन दिखता।।
जग का दाता, पूज्य विधाता, बहुत सरल है, गर्म तरल है, अति जोशीला, काव्यकार है।
हर रस पीता, और पिलाता, सबसे नाता, पाठ पढ़ाता, सदा रसीला, कलाकार है।।
कवि कर्मी है, बहु धर्मी है, अमृत सागर, उत्तम आखर, प्रति क्षण दिनकर, रचनामृत है।
लोकातीता, आदि अतीता, सदा अनंता, जिमि हनुमंता, कहता मोहक, वचनामृत है।।
107…. मनहरण घनाक्षरी
प्यार में मलाल कहां,
दिव्यता की गंध होत,
स्वर्ग शीर्ष विंदु जान,
देव रत्न पाइए।
मिला जिसे खुशी मिली,
न मिले तो मन दुखी,
सत्य राह डोर थाम,
प्यार आजमाइए।
पंथ यह विनम्रता,
प्रधान भाव दिव्यता,
सभ्यता की नींव डाल,
प्यार को जगाइए।
काल चक्र घूम रहा,
न कभी ये थम रहा,
वक्त जब पुकारता,
प्यार पास जाइए।
प्यार नित पुकारता,
जांच कर विचारता,
पात्र बन सदा सुखी,
प्रीति गीत गाइए
प्यार शिव अनंत है,
विवादहीन संत है,
लो लगा इसे हृदय,
पीजिए पिलाइए।
108…. छंद रत्नाकर
8/8/8/8/8/8/11
जब जब आती, याद तुम्हारी, हृदय धड़कता, नयन फड़कता, मन में विचलन, तेरा चिंतन, मुखड़ा अधिक उदास।
बहुत सताते, तुम नहिं आते, रात जगाते, सदा रुलाते, स्वप्न दिखाते, याद दिलाते, किंतु न रहते पास।।
प्यारे मन में, सदा बसे हो, उर सरसे हो, अति काबिल हो, सुंदर दिल हो, प्रीति अखिल हो, आ जाओ साकार।
निराकार मत, देह सहित तुम, आओ सचमुच, बात सुनो कुछ, दिखलाओ बस, रूप निराला, तरस रहा है प्यार।।
तू है मंजिल, सच्चा मंदिर, मोहक प्रतिमा, अनुपम महिमा, सादा जीवन, उन्नत तन मन, शिवमय प्रेम प्रकाश।
हे मन नीरज, दो अब धीरज, बन करुणालय, सिंधु दयालय, प्रिय रस धारा, नभ का तारा, करना नहीं निराश।।
109….. डॉक्टर रामबली मिश्र की कुंडलिया
जिसका सुथरा साफ मन, निर्मल पावन भाव।
वह अमृत समतुल्य हो, धोता सबका घाव।।
धोता सबका घाव, नेह से सींचत सबको।
देता दुख में साथ, सुखी चाहत है जग को।।
कहें मिश्र कविराय, जगत जानत है उसका।
मोहक क्रियाकलाप, सदा सुखकारी जिसका।।
सारा जीवन पुण्य में, जिसका होता पास।
बड़भागी प्रिय पूज्य वह, सम्मानित अहसास।
सम्मानित अहसास, कराता मानव पावन।
हरित क्रांति का स्रोत, बुलाता मोहक सावन।।
कहें मिश्र कविराय, कर्म है जिसका प्यारा।
वह विशिष्ट धनवान, दान पाता जग सारा।।
प्यारा मानुष है वही, जो करता सत्कर्म।
सुंदरता के रूप का, यही सत्य है मर्म।।
यही सत्य है मर्म, कर्म की गति को जानो।
अत्युत्त व्यवहार, सुखद मानो पहचानो।।
कहें मिश्र कविराय, बनो चमकीला तारा।
रख शुभ चिंतन वृत्ति, अगर बनना है प्यारा।।
110…. छंद प्रभाकर
जो मन कहता, यदि वह करता, तो वह बनता, वैसा ही वह, जैसा मन चह, दिखता रह रह।
बनता ढह ढह, रुकता बह बह, लगता चह चह, सुंदर सह सह, चमकत गह गह, महके मह मह।।
आभा मोहक, उत्तम बोधक, मधु भव शोधक, अतिशय रोचक, संकट मोचक, सबका पोषक।
क्रिया कर्म में, छिपा हुआ है, इक है कर्ता, जैसा करता, वैसा दिखता, खुद उद्घोषक।।
कथनी करनी, के अंतर को, शून्य करोगे, नित्य बढ़ोगे, चलते रहना, कभी न थकना।
धाम निकट है, राह विकट है, पंथ प्रेम हो, जग समेट लो, कर्मनिष्ठ बन, कभी न रुकना।।
111…. स्वर्णमुखी छंद ( सानेट )
जहां थिरकता सच्चा मन है,
प्यारा भारत कहलाता है,
वह सुंदर राह दिखाता है,
उत्तम भारत सभ्य वतन है।
जहां ज्ञान की बातें होती,
विद्या मां का यह आलय है,
मोक्ष प्रदाता विद्यालय है,
मस्तानी शिवरातें होतीं।
मत पूछो भारत की महिमा,
यही विश्व को वेद पढ़ाता,
रामचरित का मंत्र बताता,
सदा शीर्ष पर इसकी गरिमा।
भारतीय संस्कृति सर्वोत्तम।
इसमें बैठे शिव पुरुषोत्तम।।
112…. करवा चौथ पर दोहे
पति को ईश्वर मान कर, सदा सुहागन नार।
व्रत रख करवा चौथ का, करती रहती प्यार।।
नारी की निधि पति सदा, पति देवता महान।
पतिव्रता नारी सहज, हरदम रखती ध्यान।।
पति उसका श्रृंगार है, पति ही शिव सिंदूर।
सतत निकट की चाह है, यह इच्छा भरपूर।।
पति रहता है हृदय में, पत्नी रखती पास।
पति बिन नारी है सदा, अतिशय दुखी उदास।।
देख चांद को तोड़ती, संकल्पित व्रत धर्म।
दिव्य सुहागन नारि का, यह मंतव्य सुकर्म।।
पति पत्नी का अर्थ है, वह जीवन का भाव।
पति बिन नारी झेलती, सदा हृदय का घाव।।
113…. करवा चौथ का व्रत (सरसी छंद)
व्रत रखती हैं आज सुहागन,
कर सोलह श्रृंगार।
उनके जीवन का यह पावन,
अति मोहक त्योहार।
नारी का यह पर्व त्याग का,
प्रिय पातिव्रत धर्म।
जल बिन कष्ट सहन करती है,
है आध्यात्मिक कर्म।
सदा सुहागन नारी कहती,
पति ही उसके ईश।
राधा बन कर स्वयं थिरकती ,
कृष्ण द्वारिकाधीश।
सत्यवान का प्राण बचाता,
सावित्री का पुण्य।
ऐसी उत्तम नारी बिन यह,
धरा धाम है शून्य।
सीता जी का आश्रय लेकर,
राम बने भगवान।
रावण वध कर डंका पीटे,
जग में है यशगान।
पत्नी पति का भाग्य प्रबल है,
पति पाता सम्मान।
धर्म नायिका प्रीति गायिका,
पत्नी ज्ञान निधन।
आगे बढ़ता उन्नति करता,
पति पा पत्नी संग।
बनी प्रेमिका सदा खेलती,
पत्नी पति से रंग।
कृष्ण पक्ष की सहज चांदनी,
पत्नी दिव्य महान।
सदा भाग्यश्री नारी रखती,
अपने पति पर ध्यान।
करवा चौथ महान पर्व है,
त्याग तपस्या भाव।
भारतीय संस्कृति की वाहक,
पत्नी मधुर स्वभाव।
114….. मरहठा छंद
10/8/11
वह सज्जन प्यारा, जग में न्यारा, पाता सबका प्यार।
सबका हितकारी, दुनिया सारी, का चाहत उद्धार।।
जो सेवक बनकर, करता रहता, मानव का कल्याण।
अति वंदनीय वह, पूजा जाता, बनता सबका प्राण।
नहिं मोह निशा हैं, अर्घ्य सूर्य को, देता वह दिन रैन।
नित नवल चमकता, हरदम हंसता, कभी नहीं बेचैन।।
वह सबकुछ त्यागत, माया भागत, प्रभु चरणों में शीश।
निज सहज झुकाता , दर्शन पाता, मिलता है आशीष।।
ईश्वर को भजता, सबमें भरता, खुशियों का भंडार।
पापों से दूरी, सदा बनाता, करता शुभद प्रचार।।
बनकर समदर्शी प्राणि हितैषी, करता सबसे प्यार।
निर्मल मानवता, सत्य सहजता, शुचितापूर्ण विचार।।
115….. स्वर्णमुखी छंद (सांनेट)
सभ्य समाज वही कहलाता,
जिसमें शिष्टाचार भरा है,
सुंदर भाव विचार हरा है,
वही समाज स्वस्थ कहलाता।
निर्मल मन की नीर नदी है,
पावन उर का भाव विचरता,
पग से शिख तक अंग चमकता,
सात्विक युग की दिव्य सदी है।
जहां थिरकता सच्चा मन है,
वही धाम प्रिय बन जाता है,
राम अवधपुर दिख जाता है,
वही सुगंधित सुंदर वन है।
सज्जन बनकर जीना सीखो।
मधुर प्रीति रस पीना सीखो।।
116….. हरिहरपुरी के सजल
सज्जनता औषधि स्वयं, करे सुखद उपचार।
संतों के मृदु भाव से, बहता रहता प्यार।।
मीठी वाणी में बसा, हुआ स्वास्थ्य का पुंज।
सज्जन करते बोल कर, मधुर सरस व्यवहार।।
स्वस्थ वही मानव सहज, जिसके अमृत बोल।
बात किया करता सरल, सदा शिष्ट आचार।।
दवा दुआ है प्रेम में, नित सज्जन के संग।
सज्जनता की नींव पर, खड़ा रहे संसार।।
गर्मजोश इंसान है, प्रभु का निर्मल धाम।
बना चिकित्सक कर रहा, रोगी का सत्कार।।
दुखी देखकर रो पड़े, उत्तम मानव ईश।
अति संवेदनशीलता, ही जीवन का सार।।
पावन मन मंदिर सदा, है औषधि का गेह।
मन वाणी सत्कर्म से, कर सबको स्वीकार।।
117…. विधाता छंद
मजे की बात यह जानो, बड़ा चालाक बनता है।
बहुत है धूर्त अति दूषित, बहुत नापाक लगता है।
करता काम अपना है, रखे बंदूक औरों पर।
पिलाता घूंट आंसू के, दिखाता धौंस गैरों पर।
लगाता ढेर शस्त्रों की, सदा है खोजता क्रेता।
भिड़ाता रात दिन रहता, मजा वह हर समय लेता।
सदा कमजोर का रक्षक, बना वह सोचता रहता।
किया करता सतत विक्रय,सहज वह नोचने लगता।
कहीं का छोड़ता उसको, नहीं वह पाप का भागी।
हमेशा के लिए वह तोड़, रख देता अधम दागी।
अहंकारी असुर बनकर, सतत दिन रात चलता है।
सताता निर्बलों को है, स्वयं की जेब भरता है।
प्रदर्शन ही मिशन उसका, बना दानव मचलता है।
बहुत ही क्रूर भावों में, भयंकर चाल च्लता है।
उसे शिक्षा जरूरी है, उठे कोई सजा दे दे।
समय की मांग भी यह है, पटक उसको मजा ले ले।
118…. आल्हा छंद/वीर रस
भारतीय सांस्कृतिक सनातन, यही विश्व का सर्व महान।
यह अनंत इतिहास पुरातन, प्रिय सर्वोत्तम मानव ज्ञान।
इसके रचनाकार मनीषी, ऋषि मुनियों का यह विज्ञान।
घोर तपस्या का शुभ फल है, अति मनमोहक वृत्त पुरान।।
यह प्रासंगिक सदा रहेगा, इसका मूल रूप पहचान।
परम हितैषी यह जीवों का, सबमें देखे शिव भगवान।
मानववादी घोर अहिंसक, इसको सच्चाई का भान।।
प्रेम किया करता कण कण से, चींटी हाथी एक समान।।
करुणावादी समतावादी, सहज शांति रस का संज्ञान।
प्रेम परस्पर सत्य प्राथमिक, शिष्टाचार अमित रसखान।
द्वेष भाव को ठोकर मारे, गढ़ता है पावन इंसान।
अधिवक्ता यह नैतिकता का, इसमें स्वाभिमान सम्मान।।
119….. मिश्र कविराय की कुंडलिया
सजनी मेरी प्रेयसी, भगिनी मात दयाल।
रक्षा करती रात दिन, रखती हरदम ख्याल।।
रखती हरदम ख्याल, अपलक देखा वह करे।
प्रेमिल स्नेहिल भाव, सदा संगिनी दुख हरे।।
कहें मिश्र कविराय, हृदय विराट सहज धनी।
अतिशय मधुर स्वभाव, बहुत मनमोहक सजनी।।
सजनी सुंदर रूपमय, कोमल मृदु मुस्कान।
साजन को दिल में रखे, सदा उसी पर ध्यान।।
सदा उसी पर ध्यान, प्रेम से बातें करती।
हरती सारे शोक, शांति सुख देती रहती।।
कहें मिश्र कविराय, लिखती अपनी जीवनी।
सुख दुख एक समान, समझती प्यारी सजनी।।
सजनी साधारण सरल, थोड़े में संतुष्ट।
लिप्सा से मतलब नहीं, कर्म योग संपुष्ट।।
कर्म योग संपुष्ट, निरंतर चलती रहती।
करती सारे काम, मोहिनी उत्तम लगती।।
कहें मिश्र कविराय, गृह कारज में नित सनी।
लक्ष्मी वह साक्षात, शक्ति अनुपम है सजनी।।
120….. मदिरा सवैया
साजन के बिन आहत है, सजनी बस रोवत जागत है।
भागत है मन सांग पिया, नहिं ठौर कहीं वह पावत है।
सोचत है दिन रात यही, बस साजन राग अलापत है।
काटत वक्त नहीं कटता, नयना बस नीर बहावत है।
भूख नहीं लगती उसको, मन में बस साजन आवत है।
भोगत कष्ट सदा सजनी, तन क्षीण लगे दुख गावत है।
होय निराश हताश करे पर, क्या किससे वह बात कहे।
आंगन सून पड़ा बिखरा उर, रोग वियोग जुबान दहे।
121…. दुर्मिल सवैया
सजनी कहती सजना सुनता, सजना कहता सजनी सुनती।
रहते नजदीक चला करते, सजनी सजना मन को लखती।
मुंह में मुंह डाल किया करती, हर बात बतावत है सजनी।
न छिपावत है इक तथ्य कभी, न दुराव कभी रखती सुगनी।
मधु प्यार अपार भरा मन में, अति स्नेह सदा झलका करता।
व्यवहार सुशिष्ट सदा मनमोहक, ध्यान सदा छलका करता।
अति श्लाघ्य सुकोमल तंत्र महा, अहसास मनोहर मादक है।
अजपाजप मंत्र चला करता, सजनी सजना मन लायक है।
122…. आल्हा शैली/वीर रस
हिंद देश के कलम सिपाही, लिखते पावन दिव्य विचार।
भारत वर्ष देश अति प्यारा, इसकी महिमा जग विख्यात।
अति असीम यह सभ्य देश है, वंदन हो इसका दिन रात।।
यह प्रतिनिधि सच्चे मानव का, इसका उज्ज्वल अमृत सार।
हिंद देश के कलम सिपाही, लिखते पावन दिव्य विचार।।
हिंदी हिंदुस्तान अनोखा, यह निर्मल गंगा की धार।
अजर अमर इतिहास निराला, इसमें भरा हुआ है प्यार।।
सात्विकता की जीवित प्रतिमा, अति विशुद्ध इसका संसार।
हिंद देश के कलम सिपाही, लिखते पावन दिव्य विचार।।
सहनशीलता कण कण में है, यह मानवता का है गांव।
हरित क्रांति लाता जन मन में, देता सबको मधुरिम छांव।।
सकल विश्व की यह काया है, देता रहता स्नेह अपार।
हिंद देश के कलम सिपाही, लिखते पावन दिव्य विचार।।
123…. सजल
दीप जले नित प्रेम का, दिल में रहे प्रकाश।
सबके प्रति सद्भावना, करे तिमिर का नाश।।
उन्नत मन से नित्य हो, सबके प्रति प्रिय भाव।
जागृत हो भू लोक पर, अजर अमर अविनाश।।
दीपोत्सव का अर्थ हो, दीपक हो यह देह।
सहज परस्पर स्नेह से, गूंज उठे आकाश।।
दीवाली वह शब्द है, जिसका व्यापक मोल।
पिण्ड पिण्ड मंदिर बने, खुश हों सभी निराश।।
मन के कोमल तंत्र का, करते रहो प्रसार।
अंगड़ाई ले चांदनी, चांद न होय हताश।।
देवगणों की विजय हो, हारे मिथ्याचार।
सच्चाई की लौ जले, राक्षस सत्यानाश।।
124….. चौपाई (सत्युग)
सत्युग सत्य काल का द्योतक।
सच्चे इंसानों का पोषक।।
सात्विक भावों की यह धारा।
सब कुछ दिखता अनुपम प्यारा।।
ब्रह्म मुहुर्त सदा रहता है।
सबमें निर्मल मन बसता है।।
बुद्धि सुगंधित मानववादी।
है विवेक अतुलित शिववादी।।
परमारथ का यह विद्यालय।
श्वेत साफ स्वच्छ दृढ़ आलय।।
दिव्य मनोहर अविरल सागर।
सत्व सरल सहजामृत साक्षर।।
सबमें ब्रह्मणत्व दिखता है।
हर मानव कविता लिखता है।
महा काव्य की रचना होती।
नैतिकता मधु रोटी पोती।।
द्वेष कपट का अंत काल है।
माया रहित अदम्म्य चाल है।
यहां सभी अपने लगते हैं।
दैत्य दनुज भगने लगाते हैं।।
सत शिव सुंदर सब खुश रहते।
आत्मवाद का किस्सा कहते।।
लोकातीत मूल्य का गायन।
भोगवाद लगता जिमि डायन।।
दुग्ध पवित्र नीर अति पावन।
मंद पवन शीतल मनभावन।।
भीतर बाहर गंगा बहती।
मनोवृत्ति में शुचिता रहती।।
125…. दोहा
बलि का बकरा जो बने,उसको मुरख जान।
बुद्धिहीनता की यही, है असली पहचान।।
उकसावे में आ सदा, करता है हर काम।
छिपी सोच में मूर्खता, किंतु चाहता नाम।।
बहकावे में नित करे, अपना काम तमाम।
फंस जाने पर ले रहा, वह गाली का नाम।।
छल प्रपंच के चक्र में, देता अपनी जान।
बुद्धिहीन को है नहीं, इस दुनिया का ज्ञान।।
धूर्तों के दुश्चक्र से, बचना नहिं आसान।
सावधान रहता सदा, बुद्धिमान इंसान।।
दो सशक्त दुश्मन प्रबल, का छोड़े जो चक्र।
उस चालाक मनुष्य का, क्या कर सकता वक्र??
आकांक्षा लालच बुरी, दिल से इनको जान।
मूल्यांकन औकात की, कर खुद को पहचान।।
कूद पड़ा कमजोर जो, गया नरक के द्वार।
नहीं बचाने के लिए, कोई भी तैयार।।
फूट फूट कर रो रहा, जगती हंसती आज।
निर्बल हो बलवान बन, तब कर खुद पर नाज।।
126….. स्वर्णमुखी छंद (सानेट)
निर्मल मन सचमुच में प्यासा।
भूख लगी है इसे प्यार की।
मनोकामना इसे यार की।
दिखता पर यह सदा उदासा।
चाहत इसकी पूरी होगी।
सच्चे दिल से चाह रहा है।
कर जोड़े यह मांग रहा है।
यह यात्रा क्या पूरी होगी?
बहुत तमन्ना पाले मन में।
मंजिल दूर दिखाई देता।
बहुत थकित पंथी दुख खेता।
होता यह हताश जीवन में।
काट चलो यह लौकिक बंधन।
करो प्रेम से ईश्वर वंदन।।
127…. मरहठा छंद (धनतेरस)
धनतेरस आया, खुशियां लाया, लक्ष्मी संग गणेश।
दिल से पूजन हो, मधुर भजन हो, हर्षित विष्णु महेश।
मन सिंधु मथन से, देव यतन से, रत्नों का भंडार।
पाई यह जगती, हर्षित धरती, धनवंतरि अवतार।।
श्री कार्तिक कृष्णा, त्रयोदशी तिथि, अति पावन है पर्व।
यह काल सुहावन, हिंदु लुभावन, करते हम सब गर्व।।
है दिव्य पुनीता, कंचन क्रेता, बनते सब धनवान।
दीवाली जगमग, करती पग पग, मिलता प्रभु से ज्ञान।।
उर में शुभ मति है, अद्भुत गति है, मन नभगामी होत।
छूता गगनांचल, यह मन चंचल, दिव्य भाव का स्रोत।।
त्योहार सनातन, पुलकित जन जन, नव जीवन का भाव।
यह हिंदू वसुधा, खुशदिल विविधा, मोहित मनुज स्वभाव।।
128…. अमृत ध्वनि छंद (दुलहन)
मात्रा भार 24
सर्वोत्तम दुलहन सदा, देती पति को प्यार।
जैसे माता पुत्र की, दिखती है रखवार।।
दुल्हन उत्तम, अतिशय अनुपम, देखत प्रियतम।
कहीं न जाती, स्नेह दिखाती, सर्व उच्चतम।
रूप निराला, जिमि मधु प्याला, कोमल वाणी।
परम मनोहर, सुखद सरोवर, अति प्रिय प्राणी।
दुलहन जैसा सज दिखे, दीपोत्सव त्योहार।
प्रेम परस्पर मिलन का, यह उत्कर्ष विचार।।
प्रीति अनोखी, निर्मल रसमय, पावन शुभमय।
दीपोत्सव है, शुभ उत्सव है, अति प्रिय शिवमय।
जिसको भाता, पति का नाता, मधु मनहारी।
दुलहन प्यारी, बहुत दुलारी, नित सुखकारी।
वह दुलहन अति प्रियतमा, जो पति को परमेश।
सहज मानती नित्य है, बनकर उमामहेश।।
रमती रहती, चलती रहती, बातें करती।
सदा चहकती, दिल से मिलती, मधुर महकती।
कोमल बदना, मोहक वचना, प्रिय शिवकारी।
दिल सहयोगी, सदा निरोगी, सुंदर नारी।
129…. त्रिभंगी छंद
10/8/8/6
वह अति बड़ भागी, प्रभु अनुरागी, जन सहभागी, बन चलता।
सबके प्रति ममता, दिल में समता, दयावान बन, नित रहता।
प्रिय हृदय विशाला, कर में प्याला, कंचन जैसा, चमकत है।
नहिं क्रोध कभी है, नहिं दंभी है, शांत पथिक बन, चहकत है।
उर आंगन मोहक, जग का पोषक, विनय भावना, नृत्य करे।
मन सुंदर सत्यम, सहज शिवम सम,जगत हृदय धर, प्रीति करे।
मधुरा सुधरा बन, विनय बदर तन, झमझम झमझम, नीर भरे।
भावुकता जागे, नैतिक आगे, राग अलापे, हाथ धरे।
130…. मधु मालती छंद
7/7/7/7
चले आना, वहां मिलना, जहां केवल, तुम्हीं हम हों।
नहीं भूलो, कभी इसको, सदा मन से, मिटे गम हों।
तुम्हें पाकर, खुशी होगी, निराला मन, सहज गमके।
जरा इस पर, करो चिंतन, जरूरी है, हृदय महके।
तुम्हें मन कर, रहा देखें, लिपट जाएं, उजाला हो।
तिमिर मन का, छटे हरदम, दिवाकर का, शिवाला हो।
यही तुमसे, निवेदन है, इसे स्वीकृति, सहज देना।
रुको मत तुम,अभी आओ, हृदय धड़कन, समझ लेना।
131…. तुलसी छंद
10/8/12
शिव भारत प्यारा, विश्व सितारा, यह सबका सहयोगी।
सब लोग यहां के, सुह्रद जगत के, सबके सब हैं योगी।
निष्कपट भाव है, स्नेह छांव है, सब लगते अति प्रेमिल।
सबमें अनुरागा, मानव जागा, रसना अतिशय स्नेहिल।
है कोमल मनुजा, अनुजा तनुजा, सबके उर अमृत है।
सब भावुक हृदया, दया धर्ममय, जिह्वा पर संस्कृत है।
मधु रस से सिंचित, निर्मल वाणी, से बहती रस धारा।
अतिशय व्यापक है, शुभमत प्यारा,भारत देश हमारा।
132….. विधाता छंद
1222 1222, 1222 1222
परिंदा बन सदा उड़ना, जियो मस्ती भरा जीवन।
करो प्रिय कल्पना मोहक, बसाओ एक सुंदर वन।
नहीं तरसे कभी मन यह, सदा रंगीन बगिया हो।
कभी डूबो कभी तैरो, सुहानी गंग नदिया हो।
नहीं किस्मत कभी कोसो, सहज पुरुषार्थ करते चल।
पसीना नित बहाते रह, परिश्रम कर सदा केवल।
युवा बन कर दिखो हरदम, मनोबल उच्च हो जगमग।
चकाचक प्रेम से जीना, जगत में नाम कर पग पग।
नहीं कुंठित कभी होना, सदा हर्षित रहा करना।
बने पावन पवन बहना, जहां चाहो वहीं रहना।
सताए जो तुझे कोई, नहीं संवाद उससे कर।
अलापो राग उत्तम को,अकेला ही सुगम पथ धर।
133…. पद्मावती छंद
10/8/14
जो कोशिश करता, चलता रहता, बढ़ता जाता हिम गिरि पर।
परवाह न करता, आगे क्या है, क्रमशः चढ़ता फूंक फूंक कर।
है बाएं दाएं, गहरी खाई, सावधान नियमित दिखता।
वह गिर जाने पर, फिर उठता है, इतिहास अमर नित लिखता।
उद्देश्य अटल हो, दूर दृष्टि हो, नेक इरादा मन में हो।
भूतल से उठने, की इच्छा हो, ऊर्जा मनबल दिल में हो।
गिरने से मानव, जो नहिं डरता, वही सफल हो जाता है।
है जिसके भीतर, मंजिल मुखड़ा, वही लक्ष्य को पाता है।
134…. शिव छंद
मात्रा भार 11
प्रेम भाव जाग रे,
प्रीति रीति मांग रे,
है यही सशक्त रे,
जिंदगी संवार रे।
सुष्ठ भाव निर्मला,
पुष्ट स्नेह उज्ज्वला,
कागजी रहे नहीं,
दिल मिले सदा सही।
लांघ जा समुद्र को,
हाथ जोड़ रुद्र को,
रुक न जा तु राह में,
चल बढ़ो अथाह में।
135…. शक्ति छंद
मात्रा भार 18
मापनी 122 122 122 12
चलो प्यार करते बने जिंदगी।
रखो स्नेह दिल से करो बंदगी।।
नहीं जिंदगी का ठिकाना यहां।
चलेगा न कोई बहाना यहां।।
बहो वेग में नीर धारा बनो।
गगन का सदा शुभ सितारा बनो।।
बनो वृक्ष फलदार जग के लिए।
रहे कामना दिव्य सबके लिए।।
मनोरथ यही एक सबमें जगे।
सदा यह जगत शुभ्र मधुरिम लगे।।
सभी में रहे भाव निर्मल सदा।
इसी जीवनी का नशा सर्वदा।।
रहे कर्म मोहक यही चाव हो।
बहे धर्म पावन यही भाव हो।।
बनें शांति के दूत मानव यहां।
दिखाई न दें दुष्ट दानव यहां।।
चले जात सब हैं न रुकते यहां।
गमन आगमन सिलसिला है यहां।।
136….. मनोरम छंद
मापनी 2122 2122
देश हित में काम होगा।
संत का तब धाम होगा।
राष्ट्र उन्नति नित करेगा।
स्वर्ग अपना हुं भरेगा।
राजधानी को सजाओ।
शुभ महल उत्तम बनाओ।
लें बसेरा अब मनुज सब।
दीप चमकीला जले तब।
हिंद संस्कृति जब फलेगी।
पूर्ण मानवता खिलेगी।
विश्व का उद्धार होगा।
शुद्ध शिष्टाचार होगा।
प्राण से बढ़ कर कहीं कुछ।
है कहीं तो देश सचमुच।
देश का जो ख्याल रखता।
एक प्रिय इतिहास रचता।
137……. राधेश्यामी छंद
एक चरण में 32 मात्रा
16 ,16 मात्रा पर यति
दो चरण तुकांत
कुल 4 चरण
कृष्ण सुनावत प्रेम कथा नित, सुंदर मोहक भाव भरे हैं।
प्यार प्रशिक्षण होय सदा सब ,के उर पर कर स्नेह धरे हैं।
दिव्य अदा प्रिय चाल मनोहर, रूप विशिष्ट सदा सुखदायी।
नेह सिखावत हैं जग को प्रभु, गीत सुनावत हैं मदमायी।
प्रीति सुनीति बतावत गावत, दृश्य अमोल दिखावत भावत।
सखियां सब मस्त दिखें मधुवन, झूमत हैं सब ढोल बजावत।
अनुराग प्रसन्न सुखी सहजा , रति काम सुशोभित बीन बजे।
प्रेम प्रसंग जहां छिड़ता तहं, मधु पोषक रोचक श्याम सजे।
138…. दुर्मिल सवैया
अहसान नहीं वह मानत है, जिसमें अति दूषित भाव भरा।
उपकार नहीं वह जानत है, जिसका दिल पत्थर औ कचरा।
अति स्वारथ दृष्टि जहां रहती, वह दानव नीच अपावन है।
परमारथ के उर में बसते, शशि धेनु अमी मणि पावन हैं।
अहसास नहीं करता अपकार, कभी सहयोग सुदर्शन का।
अति क्रूर बना चलता रहता, नहिं भाव सुगंधित चंदन का।
अपने हित में वह जीवित है, पर के प्रति उत्तम सृष्टि नहीं।
कृतकृत्य नहीं उसको प्रिय है, हरहाल सुहावनि वृष्टि नहीं।
139….. आल्हा शैली/वीर रस
नीच बुद्धि है नहीं सुधरती, चलती रहती गंदी चाल।
चाहे उसको जितना पीटो, फिर भी जस का तस है हाल।
अहंकार का सड़ियल नाला, कहता खुद को नैनीताल।
अजीवन लतियाया जाता, फिर भी चलता सदा कुचाल।
भू भागों पर कब्जा करने, को आतुर वह नित बेहाल।
समझाने पर नहीं मानता, बातों को देता है टाल।
घोर विरोधी लोकतंत्र का, चाह रहा बनना महिपाल।
महा शक्ति बनने को व्याकुल, टेढ़ी भृकुटी डेढ़ कपाल।
नहीं सौम्यता अच्छी लगती, कपटी मायावी हरहाल।
विश्व विजेता बनने का मन, किंतु हृदय में सहज अकाल।
बिन भोजन के मरता रहता, ओढ़े चलता दूषित खाल।
बदबू बनकर स्वयं घूमता, कहता खुद को अति खुशहाल।
बहुत जटिल उसकी संरचना, चाह रहा आए भूचाल।
सजल जगत में निंदनीय वह, स्वेच्छाचारी संकट काल।
कहता कुछ है करता उल्टा, नहीं भरोसे का वह लाल।
खाता रहता लात हमेशा, किंतु उड़ा कर चलता बाल।
है निर्लज्ज अशोभा जग का, बुनता हरदम पापी जाल।
दुष्प्रचार में माहिर बनकर, करता अपना सदा प्रचार।
ललकारो ऐसे राक्षस को, जो पाखंडी मिथ्याचार।
कभी तवज्जो उसे न देना, जो दानवता का है सार।
त्रेता द्वापर युग आएं अब, राम कृष्ण का हो अवतार।
140…. कुंडलिया
हुकुमत कभी चले नहीं, जिसमें हो अन्याय।
आज्ञा से अवसर भला, जिससे प्रेरित न्याय।।
जिससे प्रेरित न्याय, वही सबको करना है।
सर्वोचित प्रिय पंथ, सभी को उर रखना है।।
कहें मिश्र कविराय, रहो अच्छे पर सहमत।
जग में करे न राज, कभी भी गंदी हुकुमत।।
हुकुमत मानवपरक हो, लाए उत्तम राज।
मानवतावादी समझ, से हों सारे काज।।
से कर सारे काज, मनुज अनमोल दिवाकर।
मन में सेवा भाव, स्वयं में है रत्नाकर।।
कहें मिश्र कविराय, कभी मत पालो गफलत।
समुचित होय विचार, इसी पर केंद्रित हुकुमत।।
141…. पद्मावती छंद
10/8/14
नित देखो सुंदर, बनो धुरंधर, सीखो उत्तम काम सखे।
परहित की सोचो, आंसू पोंछो, धरा धाम शुचि शुद्ध दिखे।
पावन प्रतिमा गढ़, आगे को बढ़, यह जग अमृत स्वाद चखे।
आकर्षण आए, सब मिल गाएं, जनमानस सद्ग्रंथ लिखे।
सबका कोमल मन, शुभ शिव तन धन, सात्विक चिंतन राग मिले।
दिल में मोहकता, स्थायी स्थिरता, मुखड़ों पर मुस्कान खिले।
प्रिय भाव परस्पर, स्नेह निरंतर, सबके भीतर नित जागे।
जब द्वेष मिटेगा, हृदय हंसेगा, मनोरोग निश्चित भागे।
142….. तुलसी विवाह/माहात्म्य
आल्हा शैली/वीर रस
असुर जलंधर महा प्रतापी, अति बलशाली उन्नत भाल।
उसकी पत्नी वृंदा देवी, पतिव्रता पति की रखवाल।
वृंदा सात्विक सौम्य प्रतिष्ठित, सत्य सुहागिन दिव्य सुचाल।
पति को वह परमेश्वर माने, करती रहती रक्षपाल।
अत्याचारी सदा जलंधर, एकबार पहुंचा कैलाश।
देख उमा को आकर्षित था, किंतु किया अपना ही नाश।
शिव से युद्ध किया कुविचारी, महा युद्ध यह अति घनघोर।
राक्षस का वध बहुत असंभव, यह घटना पहुंची चहुंओर।
संभव था उसका वध केवल, यदि वृंदा की होती हार।
महारथी तब विष्णु बने हैं, लिए जलंधर का आकार।
भंग हुआ वृंदा चरित्र तब, मारा गया जलंधर नीच।
विजय हुई तब शिव शंकर की, इस सारी दुनिया के बीच।
वृंदा को जब पता चला छल, जल कर भस्म हुई वह राख।
देख दशा हरि दुखी हुए हैं, रखा उन्होंने अपनी साख।
वृंदा को आशीष दिए प्रभु, बन जाओ तुलसी का पेड़।
पूजी जाओगी जगती में, तेरे आगे सब कुछ रेड़ ।
सदा चढ़ोगी शिव मस्तक पर, ईश्वर के सिर पर भी रोज।
अति पावन तुम कहलाओगी, जगत करेगा तेरी खोज।
दिव्यायुष तुम सकल धरा पर, विश्व रहेगा सदा निरोग।
जहां कहीं भी तुम दिख जाओ, यह कहलाएगा शुभ योग।
तुलसी संग सहज रघुनायक, तेरी महिमा अपरंपार।
अजर अमर इतिहास तुम्हारा, तुम पाओगी सब का प्यार।
143…. वाम सवैया
नकार न प्यार उधार नहीं अति सुंदर मोहक रूप यही है।
मिले यदि यार सदा सुख दे वर दे उर दे मधु खूब वही है।
दुलार करे अपने हिय में रख साहस दाढ़स देत सही है।
अपावन भाव नहीं रखता मन से सुकुमार अशांत नहीं है।
निरोग वही जिसको मिलता अति कोमल मोहक प्रेम सदा है।
सुयोग इसे कहती जगती जिसके कर में प्रिय स्नेह गदा है।
अभाव नहीं वह झेलत है नित मस्त सदा चलता फिरता है।
सप्रेम विनम्र बना दिखता उस मानव को शिव प्यार बदा है।
144….. ताण्डव छंद
चलो जहां प्रभाव शैव राम धाम छांव हो।
बढ़े सदा कदम सतत विधान देव गांव हो।
रुको नहीं झुको नहीं करस्थ धर्म ग्रंथ हो।
स्व नाम धन्य हो सदा सुकर्म भव्य पंथ हो।
रहे न काम एक भी अनाम राम जाप हो।
जपा करो तपा करो कटे अनिष्ट पाप हो।
सुवास हो सुगंध हो गुलाब पुष्प वाटिका।
सहर्ष दिव्य भावना रचे सुकृत्य नाटिका।
145…लौटती यादें
याद तुम्हारी तब आती है, जब तुम मेरे पास न होते।
बहुत सताते हो तुम प्यारे, हे मनमीत जागते सोते।।
तड़पन में बस एक तुम्हीं हो, बता कहां तक तड़पाओगे।
सृजन न होगा एक कभी भी, जबतक तुम आ जाओगे।।
साथ तुम्हारा वैसा ही था, जैसा मेरा मन चाहा था।
बहुत दिनों तक किया प्रतीक्षा, तब जा कर पाया था।।
रहते थे हम दोनों मिलकर, एक जगह पर बैठा करते।
प्रेम परस्पर हिलना मिलना, हंसते गाते चलते फिरते।।
कर में कर डाले चलते थे, कितना सुखमय जीवन था।
भ्रमण किया करते हम दोनों, अतिशतय आह्लादित तन मन था।।
जीवन की बगिया पुष्पित थी, खिला हुआ प्रिय घर आंगन था।
ऐसा लगता था मदमांता, शुभमय मधुमय नित सावन था।।
मस्ती में हम झूमा करते, सहज गले से लग जाते थे।
एक दूसरे को हम छू कर, हो विलीन तब पग जाते थे।।
बहुत सुहाने दिन मनभावन, नहीं लौट कर अब आएंगे।
ऐसा स्नेहिल प्रेमिल मधुरिम, नहीं कभी भी अब पाएंगे।।
था बसंत जीवन का प्यारा, यादों में यह गुम्फित दिखता।
था अतीत सुखदायक मोहक, वर्तमान में कविता लिखता।।
146….. मोहिनी
रूप मोहिनी दिव्य रूपसी, अतिशय प्यारी सुंदर नारी।
सहज लुभाती है लोगों को, जीवन उपवन की यह प्यारी।।
ब्रह्मा जी की यह रचना है, बड़े प्रेम से गढ़ी गई हैं।
दुनिया करती इसका पूजन, धर्म ग्रंथ सी पढ़ी गई है।।
इसको पाता भाग्यमान ही, प्रिया पार्वती शंकर की है।
यह लक्ष्मी है नारायण की, राधा कृष्ण मयंकर की है।।
अति मधु चपला बहुत सुहावन, सदा सरस रस बनकर बहती।
मौनव्रती मादक मस्ती में, शांत रसिक बन सब कुछ कहती।।
गज गामिन सी चलाती रहती, प्रेम सुधा वह बरसाती है।
जो कुपात्र इस धरा धाम पर, नित उनको यह तरसाती है।।
बहुत जटिल है परम सरल है,सत्पात्रों को उर में रखती।
करती रहती प्यार निरंतर, अंतःपुर में सतत मचलती।।
मोहित होती विद्वानों पर, जिनके भीतर कपट नहीं है।
छल छद्मों से नफरत करती, कभी स्वार्थ की लपट नहीं है।।
है चरित्र जिसका अति पावन, उसपर सदा लुभाती है वह।
जो विनम्र शालीन सनातन, दिल में उसे सजाती हैं वह।।
147…. उपासना
सदा रहे सुभद्र भाव आस पास बैठिए।
लिखा करो सुगीत ग्रंथ पाठ नित्य कीजिए।
करस्थ लेखनी चले प्रवाह हो विचार में।
सदेह भावना बहे सुमंत्र स्तुत्य बोलिए।
मनुष्य हो सुदूर देख आत्म भाव पाइए।
नहीं कभी दुराव हो अमर्त्य देश आइए।
अभद्रता असह्य हो अशिष्टता करो नही।
पढ़ो सदैव नम्रता विनम्रता जगाइए।
148…. चांदनी रात
मिला करे सदैव रात्रि चांदनी सुहागिनी।
खिला करे वसुंधरा प्रशांत प्रीति गामिनी।
सदा रहे सुघर मधुर सुवासयुक्त कामिनी।
करो सहर्ष कामना दिखे प्रसन्न यामिनी।
डकैत और चोर का विलोम रात चांदनी।
सुशांत भाव दिव्यता प्रफुल्ल भव्य चांदनी।
दिवा सदैव है बनी प्रकाश रूप चांदनी।
युवा सशक्त निर्विकार दिव्य काम्य चांदनी।
सुमोहिनी सुगंधिनी सुपुष्टिनी सुभागिनी।
प्रभावयुक्त प्रेमयुक्त ज्ञान द्रव्य दायिनी।
सजी धजी चमक बिखेरती कुलीन भामिनी।
सुहाग रात प्रेमिका सुसुष्ठ सौम्य चांदनी।
149…. शिक्षा (वीर रस)
भरी पड़ी शिक्षा से जगती, भरे पड़े हैं तीनों लोक।
सकल सृष्टि यह विद्यालय है, यहां शोक है और अशोक।
कण कण देता ज्ञान यहां पर, लेनेवाला हो जिज्ञासु।
सबके आगे सरिता बहती, पीता रहता सहज पिपासु।
चारोंतरफ ज्ञान की धारा, इच्छा हो तो पीना सीख।
इसमें जीवन की मस्ती है, बुद्धिमान बन करके दीख।
बुद्धिमान है वह मानव जो, करता रहता है अभ्यास।
पार्थ बना वह वाण चलाता, एक विंदु का बस अहसास।
लक्ष्य देखता एक मात्र बस, और कहीं भी जाय न दृष्टि।
जीवन का संग्राम जीतता, सतत सफलता की शुभ वृष्टि।
जड़ चेतन सब ज्ञान सिखाते, देते रहते हैं सद्ज्ञान।
बड़े प्रेम से हाथ जोड़ते, नतमस्तक हो देते दान।
श्रद्धा अरु विश्वास जहां है, वहीं सीख का उत्तम गेह।
जगत गुरू भारत की माटी, कण कण करता सबसे नेह।
एक दूसरे से सब चिपके, आकर्षण की शिक्षा देत।
सहयोगी भावना जगाते, बदले में कुछ कभी न लेत।
फल देते फलदार वृक्ष हैं, जीवों से करते हैं प्यार।
शीतल छाया बने चहकते, कभी नहीं करते व्यापार।
मानवता का पाठ पढ़ाते, इनको सच्चा गुरुवर जान।
लहराती नदियों की धारा, बिना शुल्क देती जलदान।
देख परिंदों को मुस्काओ, जब भरते ये गगन उड़ान।
मस्तानी है अदा निराली, जीवन शिक्षण का अभियान।
हर घटना से सीखो प्यारे, सब में भरी हुई है सीख।
ज्ञान लोक तुम बैठे हो, बिन मांगे पाते हो भीख।
नहीं इमारत विद्यालय है, यह चेतन संस्कृति का द्वार।
सबसे सीखो सबको जानो, सभी जगह गुरु का दरबार।
घृणा द्वेष नफरत से ऊपर, उठकर देखो ज्ञान अथाह।
प्रेम समर्पण त्याग तपस्या, सुंदर मानव की हो चाह।
तुम विनम्र समदर्शी बनना, पारदर्शिता की हो राह।
श्वेत पत्र लिख नैतिकता का, हस्ताक्षर हो कभी न स्याह।
सहज चमकता सूरज बनना, देते रहना ज्ञान प्रकाश।
सीखो और सिखाओ सबको, इक दिन छूना दिव्याकाश।
शिक्षा का यह मर्म सनातन, मुनि महर्षि की वाणी जान।
आत्मोन्नयन करो खुद अपना, वीणापाणी का यशगान।
150…. स्वर्णमुखी छंद (सानेट)
तेरी सूरत जब से देखा।
पा लेने की होती चाहत।
बिन पाए मन होता आहत।
तुम हो मोहक मादक रेखा।
बस जाओ नैनों में आ कर।
तुम्हें निहारा करें चूमते।
रहना मन में सदा घूमते।
बात करें तुझको बैठा कर।
अंग अंग में उमड़ घुमड़ कर।
देखें यौवन की अंगड़ाई।
मनोरोग की यही दवाई।
तन मन दिल में नित्य भ्रमण कर।
रात चांदनी बन कर आना।
उर को मधु मद से नहलाना।।