? बुझा बुझा सा मन ?
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
?एक अबोध बालक**अरूण अतृप्त?
मन ये मेरा मन
न जाने
क्यूँ आजकल
बुझा बुझा सा
रहने लगा है
देख कर दर्द
दुनिया का
चुप चुप सा
रहने लगा है ।।
हर किसी से
हम छुपा लेते हैं
बात अपने दिल
की सदा ही
लेकिन वो कहाँ
छुपती है आंखों
से हो जाती है बयां
रूठ कर बैठे रहेंगे
तो उम्र कट न पायेगी
चल कोई उद्धम करेंगे
तो ही तो ये छँट पायेगी
फिर वही उलझन लिए
फिर वही उलझन लिए
मन हमें तड़पायेगा ।।
मन ये मेरा मन न जाने
क्यूँ आजकल
बुझा बुझा सा
रहने लगा है
देख कर दर्द
दुनिया का
चुप चुप सा
रहने लगा है ।।
दर्द तेरा दर्द मेरा
एक ही तो बात है
हर कोई इस को
समझ ले यही तो
जज्बात हैं
मान कर इस मन
की बातें भी
रहा न जाएगा
मान कर इस मन
की बातें भी
रहा न जाएगा ।।
मन ये मेरा मन न जाने
क्यूँ आजकल
बुझा बुझा सा
रहने लगा है
देख कर दर्द
दुनिया का
चुप चुप सा
रहने लगा है ।।
मैं रहा रोता अपनी
पीर को अजीब था
देखने निकला जो दुनिया
हर कोई तो तकलीफ में था
जब सुनी लोगो से उनकी
जब सुनी लोगो से उनकी
तो बहुत हैरान था
दर्द मेरा तो बहुत ही कम
और क़ाबिले बर्दाश्त था ।।
मन ये मेरा मन न जाने
क्यूँ आजकल
बुझा बुझा सा
रहने लगा है
देख कर दर्द
दुनिया का
चुप चुप सा
रहने लगा है