? धर्म या न्याय ?
डा ० अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
? धर्म या न्याय ?
न्याय की प्रक्रिया सुलभ होती है उसका परिणाम सुखद व संतुष्टिकारक होता है उसके माध्यम से कर्म का आधार भी सुदृढ़ होता है।
इसके विपरीत धर्म जिसका अभिप्राय वही होते हुए भी संशयात्मक होता है इसमें कार्य का सम्पादन समय व शक्ति का हनन भी हो सकता है ।
एक उदाहरण से समझिए आपकी प्रक्रिया भिन्न भिन्न हो सकती हैं लेकिन सत्य के मार्ग में क्या उचित क्या अनुचित ये तो निर्णय आपका ही मान्य होगा।
ऐसे ही सन्दर्भ में यहाँ एक कथा के माध्यम से मैं अपनी बात का निष्कर्ष आपके सामने रख रहा हुँ आशा है मेरा ध्यात्व्य सफल होगा |
एक बहुत ही पुण्य व्यक्ति अपने परिवार सहित तीर्थ के लिए निकला.. कई कोस दूर जाने के बाद पूरे परिवार को प्यास लगने लगी , ज्येष्ठ का महीना था , आस पास कहीं पानी नहीं दिखाई पड़ रहा था. उसके बच्चे प्यास से व्याकुल होने लगे..समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे…अपने साथ लेकर चलने वाला पानी भी समाप्त हो चुका था.
एक समय ऐसा आया कि उसे भगवान से प्रार्थना करनी पड़ी कि हे प्रभु अब आप ही कुछ करो मालिक… इतने में उसे कुछ दूर पर एक साधु तप करता हुआ नजर आया. व्यक्ति ने उस साधु से जाकर अपनी समस्या बताई…साधू बोले की यहाँ से एक कोस दूर उत्तर की दिशा में एक छोटी दरिया बहती है जाओ जाकर वहां से पानी की प्यास बुझा लो…
साधू की बात सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुयी और उसने साधू को धन्यवाद बोला. पत्नी एवं बच्चों की स्थिति नाजुक होने के कारण वहीं रुकने के लिया बोला और खुद पानी लेने चला गया.
जब वो दरिया से पानी लेकर लौट रहा था तो उसे रास्ते में पांच व्यक्ति मिले जो अत्यंत प्यासे थे. पुण्य आत्मा को उन पांचो व्यक्तियों की प्यास देखी नहीं गई और अपना सारा पानी उन प्यासों को पिला दिया. जब वो दोबारा पानी लेकर आ रहा था तो पांच अन्य व्यक्ति मिले जो उसी तरह प्यासे थे… पुण्य आत्मा ने फिर अपना सारा पानी उनको पिला दिया…
यही घटना बार बार हो रही थी…और काफी समय बीत जाने के बाद जब वो नहीं आया तो साधू उसकी तरफ चल पड़ा…बार बार उसके इस पुण्य कार्य को देखकर साधू बोला – ” हे पुण्य आत्मा तुम बार बार अपना बाल्टी भरकर दरिया से लाते हो और किसी प्यासे के लिए ख़ाली कर देते हो..इससे तुम्हे क्या लाभ मिला…? पुण्य आत्मा ने बोला मुझे क्या मिला ? या क्या नहीं मिला इसके बारें में मैंने कभी नहीं सोचा .. पर मैंने अपना स्वार्थ छोड़कर अपना धर्म निभाया.
साधू बोला – ” ऐसे धर्म निभाने से क्या फ़ायदा जब तुम्हारे अपने बच्चे और परिवार ही जीवित ना बचे? तुम अपना धर्म ऐसे भी निभा सकते थे जैसे मैंने निभाया.
पुण्य आत्मा ने पूछा – ” कैसे महाराज?
साधू बोला – ” मैंने तुम्हे दरिया से पानी लाकर देने के बजाय दरिया का रास्ता ही बता दिया…तुम्हे भी उन सभी प्यासों को दरिया का रास्ता बता देना चाहिए था…ताकि तुम्हारी भी प्यास मिट जाये और अन्य प्यासे लोगों की भी…
उपरोक्त कथा का सार समझने के बाद आप अपने निर्णय पर विचार करना अंतर सिर्फ अन्वेषण का है व्यक्ति का धर्म व व्यक्तिगत धर्म व सार्वजनिक धर्म को समझ बूझ कर प्रयोग करने का है। यही मार्ग सोच व विचार से उचित व अनुचित की शिक्षा भी देता है और न्याय व अन्याय की सुबुधि भी