जबकि मैं लोगों को सिखाता हूँ जीना
कोई कितना बिख़र गया कैसे ,
*"श्रद्धा विश्वास रुपिणौ'"*
नस नस में तू है तुझको भुलाएँ भी किस तरह
जागता हूँ मैं दीवाना, यादों के संग तेरे,
मुझे हार से डर नही लगता क्योंकि मैं जानता हूं यही हार एक दिन
तिरछी गर्दन - व्यंग्य
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
*चलिए बाइक पर सदा, दो ही केवल लोग (कुंडलिया)*
आदमी की आदमी से दोस्ती तब तक ही सलामत रहती है,
लोकतांत्रिक मूल्य एवं संवैधानिक अधिकार
म्यान में ही, रहने दो, शमशीर को,
विचारों का संगम, भावनाओं की धारा,
Jannat ke khab sajaye hai,