■ सामयिक संदर्भों में…
#प्रसंगवश
★एक और अश्वमेघ…
■ सतयुग की कहानी : कलियुग की कहानी
【प्रणय प्रभात】
इतिहास ख़ुद को दोहराए, न दोहराए, प्रेरक और समालोचक ज़रूर होता है। जो अतीत के आईने में वर्तमान को उसकी सूरत दिखाए बिना नहीं रहता। आज जबकि “नीति-रहित” राजनीति धूर्तता और अमर्यादा के शिखर पर है, प्रसंगवश एक छोटी सी पौराणिक गाथा सुनाने का जी कर रहा है। जिसे आप “कलियुग की ज़ुबानी, सतयुग की कहानी भी मान सकते हैं।
बात तब की है, जब महाराजा दिलीप का साम्राज्य था। प्रभु श्री राम के पूर्वज चक्रवर्ती सम्राट महाराज दिलीप एक धर्म-धुरंधर शासक थे। जिनकी प्रतिष्ठा गौ-सेवक और गौ-रक्षक नरेश के रूप में थी। सूर्यवंश की कीर्ति-पताका दसों दिशाओं में फहराने वाले महाराज दिलीप के सुकृत्यों से देवगण तक प्रभावित थे। यह धर्म का वो स्वर्णकाल था, जब सम्राट अपनी कीर्ति व संप्रभुता के विस्तार हेतु “अश्वमेघ यज्ञ” करते थे। कहा जाता है कि सौ अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न करने वाला “इंद्र” का पद प्राप्त कर लेता था।
महाराज दिलीप 99 अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न कर चुके थे तथा कुलगुरु के आदेश पर 100वां महायज्ञ करने जा रहे थे। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अश्वमेघ यज्ञ का श्रीगणेश हुआ और यज्ञ के अश्व को भ्रमण के लिए छोड़ दिया गया। राजवंश की प्रतिष्ठा व पराक्रम के प्रतीक अश्व की सुरक्षा के लिए शूर-वीरों की एक बड़ी टुकड़ी भी साथ थी। समूचे साम्राज्य में महायज्ञ की धूम थी। जिसकी गूंज देवलोक तक सुनाई दे रही थी। अश्व का भ्रमण निर्बाध रूप से जारी बना हुआ था, जिसका अभिनंदन द्वीप-द्वीप के राजा कर रहे थे।
अश्वमेघ यज्ञ की चर्चाओं से सबसे अधिक विचलित देवराज इंद्र थे। उन्हें पता था कि सौवें यज्ञ की निर्विघ्न संपन्नता के बाद उनकी पदवी का छिनना तय है। जैसे ही अश्वमेघ महायज्ञ की पूर्णाहुति होगी, इंद्रलोक के सिंहासन पर महाराज दिलीप का राज्याभिषेक हो जाएगा। अपनी सत्ता व सिंहासन को बचाना अब इंद्र का एकमात्र लक्ष्य था।
युद्ध में महाराज दिलीप के शौर्य का सामना कर पाना इंद्र सहित किसी देवता के बस में नहीं था। इसलिए इंद्रदेव के पास छल के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। एक रात उन्होंने अश्व-रक्षकों की नींद का लाभ उठाते हुए अश्व को चुरा लिया और उसे अपने लोक में ले जाकर छुपा दिया। घटना की जानकारी सुबह सैनिकों के बाद महाराज दिलीप तक पहुंची। उन्होंने अपने निपुण दूतों को अश्व की खोज में लगा दिया। शीघ्र ही परिणाम सामने आया और महाराज को अश्व और उसे चुराने वाले की जानकारी मिल गई।
अश्व की चोरी के पीछे का कारण भी वे जान चुके थे। जिससे वे विचलित न हो कर भी हतप्रभ और आहत थे। उन्होंने रात भर इस बारे में गहन चिंतन कर प्रातःकाल राज-सभा पहुंच कर कुलगुरु को अपने निर्णय से अवगत कराया। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि वे अब इस यज्ञ को आगे बढ़ाना नहीं चाहते और यहीं समाप्त कर देना चाहते हैं। परम्-प्रतापी महाराज के निर्णय से राजगुरु व सचिवगणों सहित समस्त सभासद स्तब्ध थे। उनका अनुमान था कि अश्वचोर को दिलीप इस दुस्साहस का दंड दिए बिना क्षण भर चैन से नहीं बैठेंगे। ऐसे में अपूर्ण यज्ञ के समापन का निर्णय स्वाभाविक रूप से उन्हें चौंकाने वाला ही था।
राजगुरु सहित विद्वान सलाहकारों ने 99 अश्वमेघ पूर्ण कर इन्द्रासन के निकट पहुंच चुके महाराज से अपने निर्णय पर पुनर्विचार का अनुरोध किया, किंतु वे अपने रुख पर अडिग दिखाई दिए। हर तरह से समझाने के प्रयास करने के बाद विफल रहे राजगुरु ने महाराज से इस निर्णय के पीछे का कारण स्पष्ट करने का आग्रह किया। सब चमत्कृत थे और यह जानने को व्यग्र थे कि सुर-असुर सभी को अतिप्रिय इंद्रलोक की सत्ता को महाराज इस मोड़ पर इतनी आसानी से क्यों छोड़ना चाहते हैं? वे सब इंद्र की तुलना में सूर्यवंशी दिलीप के पौरुष से भली-भांति परिचित थे, परिणामस्वरूप इस पलायनवादी निर्णय को सहजता से स्वीकार कर पाने की स्थिति में नहीं थे।
मनीषी राजगुरु सहित विवेकी सचिवों की मनःस्थिति को महाराज भांप चुके थे। उन्होंने अपने निर्णय के पीछे के मन्तव्य को उजागर करने का मन बनाया और एक सटीक उत्तर से सभी के कौतुहल को पल भर में शांत कर दिया। महाराज दिलीप ने धीर-गंभीर वाणी में कहा कि- “जो पद छल और चोरी जैसे घृणित कर्म के लिए बाध्य करे, वे उसे न तो बड़ा व महान मानते हैं और ना ही ग्रहण करना चाहते हैं।”
इस तर्कसंगत उत्तर से सब अवाक थे। उनका सारा संशय समाप्त हो चुका था। यह थी धर्मप्राण राजधर्म की एक अद्भुत मिसाल। क्या स्वयं को वैभवशाली धर्म-परम्परा का अनुयायी बताने वाले सत्ताधीश इस प्रसंग के पासंग भी साबित हो सकते हैं, जिनका काम दूसरों के घोड़े चुराए बिना पूरा नहीं होता? क्या ऐसे राजनेताओं से नहीं पूछा जाना चाहिए कि वे किस मुंह से एक महान धर्म-संस्कृति के संवाहक होने का दम्भपूर्ण दावा करते हैं? बेशक़ आज नहीं, मगर आने वाले कल में भारतवंशी राजनीति के छल को समझेंगे और छलिया इंद्र वाली सोच को सबक़ भी सिखाएंगे। इस संभावना को बल मिलने का क्रम शायद अरम्भ हो भी चुका है। जो राजनैतिक देवरार्जों मदान्धता व आत्म-मुग्धता का समयोचित उपचार भी है। आख़िर समय एक और अश्वमेघ का है।।
●संपादक●
न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)