■ सामयिक व्यंग्य / गुस्ताखी माफ़
#प्रसंगवश
■ ना मुद्दा…ना माद्दा, एक से बढ़ कर एक
【प्रणय प्रभात】
“मुद्दों का अभाव कोशिश का माद्दा खत्म कर देता है।’ पता नहीं यह सच हमारे देश के राजनेताओं और दलों को कब समझ मे आएगा। इन दिनों जबकि चुनावी माहौल पूरी तरह गरमाया हुआ है। समूचा लोकतंत्र मुद्दों के नाम पर बेमानी बोलों से शरमाया प्रतीत हो रहा है। मुद्दों के मामले में सभी दल दिवालियेपन की कगार पर हैं। जिनमे एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ सी मची हुई है। जो न केवल हास्यास्पद स्थिति को बेनागा जन्म दे रही है, वरन जननायकों के मानसिक माद्दे पर पर भी सवालिया निशान लगा रही है।
ताज़ा मामला “श्रीराम, सियाराम और हे राम” के रूप में सामने आया है। दल को बिखरने के लिए छोड़ कर देश को जोड़ने निकले राहुल गांधी ने एक बार फिर अपना पाँव कुल्हाड़ी पर मार दिया है। उन्होंने अपने अधूरे व आयातित धार्मिक व सांस्कृतिक ज्ञानकोष से नया सूत्र परोस कर ख़ुद की किरकिरी की नई उपलब्धि हासिल कर ली है। तर्कहीन सी एक टिप्पणी ने जहां भाजपा को फ्रंटफुट पर आ कर खेलने का मौका दे दिया है। वहीं हर मोर्चे पर पिछड़ रही अपनी पार्टी को बैकफुट पर ला दिया है। रहा सवाल जनता का, तो उसे एक बार फिर टेक्स-फ्री मनोरंजन की सौगात बिना मांगे मिल गई है। वो भी उस देश में, जहां जल्द ही सांसों पर टैक्स लग जाने तक के आसार बन रहे हैं।
मध्यप्रदेश की धरती पर नए ज़ुबानी बखेड़े का जन्म एक बेतुकी सलाह के साथ हुआ है। जो कभी राम को काल्पनिक बताने वाले दल के युवराज ने दिया है। वो भी उस दल के अलमबरदारों को, जिनकी नैया राम नाम की पतवार के बलबूते राजनीति की धाराओं पर मज़े से तैर रही है। बचकाना सा एक सवाल “सियाराम” न बोल कर “श्रीराम” बोलने पर खड़ा किया गया है। वो भी “हे राम” बोलने की हास्यास्पद सलाह के साथ। आरोप यह भी लगाया गया है कि श्रीराम में माता सीता का नाम नहीं है। जो महिलाओं का अपमान है।
विडम्बमा यह है कि “दत्तात्रेय” गौत्र वाले जनेऊधारी विद्वान ने “श्री सूक्त” का नाम नहीं सुना। उन्हें शायद यह पता ही नहीं कि सनातन धर्म मे “श्री” का अभिप्राय “लक्ष्मी” से है। ऐसे में कौन समझाए कि राम और कृष्ण के नाम से पहले लगे श्री का मतलब सीता और राधा ही है। जो शाश्वत धर्म-परम्परा का आदिकालीन प्रतीक है और नारी को नारायणी निरूपित करता आया है। सच्चाई यह है कि संदर्भित टिप्पणी का वास्ता न राम से है और ना ही नारी सम्मान की भावना से। यह मानसिकता उस खुन्नस से प्रेरित है, जिसका संबंध “श्रीराम’ शब्द से है। जी हां, उसी शब्द से, जिसे अमोघ अस्त्र बना कर भाजपा ने देश की सबसे पुरानी पार्टी को मूर्छित कर दिया। संभवतः इसी नीम-बेहोधी का परिणाम है कि पंजा-पार्टी ने “श्रीराम’ जैसे महामंत्र को मज्ज एक सियासी नारा समझ लिया है। जिसमे बहुत बड़ी भूमिका कमल-दल की भी है। जो एक “ब्रह्मनाद” को भ्रम और विवाद का विषय बना चुके हैं।
जहां तक “हे राम” जैसे शब्द का सवाल है, शाब्दिक और व्याकरणीय अल्पज्ञान का प्रमाण है। राहुल जी ने वचपन से पचपन तक बही सुना, जिसे सुनकर आज़ादी वानप्रस्थ अवस्था तक आई। प्राणोत्सर्ग से पहले महात्मा गांधी द्वारा कथित रूप से उच्चारित “हे राम” शब्द शायद उन्हें मंगलकारी महामंत्र की श्रेणी में शामिल “ब्रह्मवाक्य’ लगा। काश, “कालनेमियों” और “मारीचों’ की भीड़ से कोई “जाम्बुवान” प्रकट हो। जो दिग्भ्रमित युवराज को बता सके कि “हे राम’ चेतन अवस्था मे विवेकपूर्वक बोला जाने वाला शब्द नहीं है। यह वस्तुतः अनापेक्षित, अवांछित व अप्रत्याशित से आपदा-काल मे स्वतः प्रस्फुटित होता है। जैसे आगर-मालवा में ख़ुद उनके अपने श्रीमुख से हुआ। बहुत हद तक मुमकिन है कि कल वे अपनी “हाय-बाय” वाली मूल संस्कृति से उत्प्रेरित हो कर “हाय राम” के उपयोग की सलाह भी दे डालें। जिसके आसार नजर आने भी लगे हैं। काश, प्रभु श्रीराम उस दल को आपदाकाल में सद्बुद्धि दें, जिनके नाबागत सिरमौर को यह तक मालूम नहीं कि महापंडित रावण के “सौ” नहीं “दस” मुँह थे। हे राम!!
■ प्रणय प्रभात ■
श्योपुर (मप्र)
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