■ सामयिक आलेख-
#जागो_जनता_जनार्दन
■ अब दल नहीं जनता तय करे “मुद्दे”
★ ताकि सच मे सशक्त हो सके गणराज्य का जनमत
★ बेमिसाल हो चुनावों से भरा साल-2023/24
【प्रणय प्रभात】
लोकतंत्र का मतलब यदि जनता के लिए जनता पर जनता का शासन है, तो फिर चुनावी मुद्दे तय करने का काम जनता क्यों न करे? आज का यह सवाल आने वाले कल में जनता व जनमत के सम्मान की सोच से जुड़ा हुआ है। वही जनता जो हर चुनाव से महीने दो महीने पहले जनार्दन बनती है। भाग्य-विधाता कहलाती है और छली जाती है। मुद्दों के नाम पर उन झूठे वादों और बोगस दावों के बलबूते, जो खुद को चाणक्य समझने वाले चालबाज़ नेता और उनके दल तय करते है। अब जबकि 75 साल पुरानी स्वाधीनता वानप्रस्थ से सन्यास वाले चरण में पदार्पण कर चुकी है, ज़रूरी हो गया है कि मतदाता भी परिपक्व हों। ताकि उन्हें राजनैतिक झांसों से स्थायी तौर पर मुक्ति मिल सके।
इन दिनों जबकि सूबाई चुनावों का दंगल जारी है और देश के आम चुनाव की आहट महसूस की जा रही है। उक्त मुद्दे को लेकर चिंतन ज़रूरी है। ताकि आम चुनाव के सेमी-फाइनल माने जा रहे विधानसभा चुनाव को स्थानीय व क्षेत्रीय मसलों के बजाय राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के नीचे दबाने का सियासी मंसूबा नाकाम हो सके। यदि ऐसा नहीं होता है तो अगले 5 साल अपने साथ होने वाले छल की ज़िम्मेदार सियासी जमात नहीं, बिना शह के मात खाने वाली जनता खुद होगी। जहां तक शातिर नेताओं व धूर्त दलों का सवाल है, उनकी तैयारी पूरी है। चुनाव की घोषणा से ऐन पहले तक मतों को खरीदने और म तदाताओं को साधे जाने का खेल “उधार” की बैसाखी पर टिके “उदारवाद” के साथ खेला जा चुका है। “रेवड़ी कल्चर” के बूते सिंहासन बचाने और सत्ता हथियाने की जंग जारी है। घड़ियाली आंसू और झूठे भावों से भरे बोल शस्त्र के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। आम जनता को बीते साढ़े चार साल के उस संक्रमण काल पर विचार ज़रूर करना चाहिए, जो उसने मदमस्त सत्ताधीशों के मौन संरक्षण में तंत्र के नाम पर हर दिन दमन व शोषण के षड्यंत्र रचती निरंकुश नौकरशाही के साए में जैसे-तैसे गुज़ारा है।
बेहद ज़रूरी है कि महज चंद दिनों बाद शुरू होने वाला नया साल जन-चेतना जागरण के नाम हो। वही साल जो पूरी तरह से आम Yचुनावों कवायदों के नाम रहना तय है। सारे दल आने वाले कल के लिए आज सियासी छल के नए-नए नुस्खे तलाशने और अमल में लाने में जुटे हुए हैं। हर बार की तरह “स्वर्णमृग” बन कर। अनुत्पादक योजनाओं के अम्बार एक बार फिर चुनावी मैदान में लग चुके हैं। अगले 6 महीने भी यही नुमाइशी नूराकुश्ती तय हैं। जिनके नीचे असली मुद्दों को दबाने का प्रयास बीते चुनावी दंगलों की तर्ज़ पर होगा। जनहित के नाम पर घिसी-पिटी ढपोरशंखी घोषणाओं की गूंज जो अब तक सुनाई दी है आगे और तेज़ होगी। जिनके पीछे की मंशा जनता की आवाज़ को दबाने और मनमानी चलाने भर की होगी। इस सच को जानते हुए अंजान बनने का सीधा मतलब होगा अगले 5 साल के लिए राजकीय व राष्ट्रीय दोनों प्लेटफार्मो पर ठगा जाना। अर्थात अपने आप को धूर्तों के मेले में निरा मूर्ख साबित करना।
साल-दर-साल मिथ्या वादों की छुरी से हलाल होने वाले मतदाताओं को मलाल से बचने के लिए अपने मुद्दे ख़ुद तय और लागू करने होंगे। ऐसे मुद्दे जो समस्याओं का स्थायी हल साबित हों। जो वाद, विवाद, उन्माद या फ़साद के ताने-बानों में न उलझ कर तमाम गांठों को सुलझा सकें। मुद्दे ऐसे, जिनके परिणाम न सिर्फ पूर्णकालिक व तात्कालिक बल्कि दीर्घकालिक भी हों। कथित उपभोक्तावाद की आड़ में हर तरह की “लूट की खुली छूट” का विरोध जनता का पहला मुद्दा होना चाहिए। जो घोर मंहगाई, अवैध भंडारण, नक़्क़ाली, मुनाफाखोरी और आर्थिक ठगी से निजात दिला सके। सुरक्षित कल के लिए युवाओं को स्थायी व सुनिश्चित रोजगार के लिए रिक्त पदों पर सीधी भर्ती की आवाज़ लगातार उठानी होगी जो अभी तक ढंग से एक बार भी नहीं गूंजी। ताकि आजीविका विकास व आउट-सोर्सिंग के नाम पर जारी चहेतावाद व भाई-भतीजावाद और खुलाभ्रष्टाचार खत्म हो सके। जो रिक्तियों और भर्तियों के नाम पर “ऑनलाइन ठगी” ही साबित हुआ है। शुल्क के नाम पर करोड़ों की वसूली और बाद में पेपर-लीक के नाम पर प्रक्रिया की निरस्ती व पदों की बिक्री को संस्कृति बना चुके दल व नेता देश की युवा पीढ़ी के हितैषी कदापि नहीं हो सकते। यह सच स्वीकारा जाना चाहिए।
छोटे-बड़े कर्मचारियों को पुरानी पेंशन योजना की बहाली के साथ लंबित स्वत्वों की अदायगी, क्रमोन्नति-पदोन्नति जैसी मांगों को आम चुनाव से पहले बल देना होगा ताकि उन पर अमल की राह में रोड़ा बनती मठाधीशों की उस कुत्सित मंशा पर प्रहार हो जो यह सुविधा अपनी बपौती मानती आ रही है। पेंशन को अर्थव्यवस्था पर भार बता कर थोथी लोकप्रियता के लिए अरबों का तीया-पांचा करने वाले मदांध राहनेताओं को समझना होगा कि पुरानी पेंशन ख़ज़ाने पर भार नहीं 3 से 4 दशक की सेवाओं के प्रति आभार है। यह माँग सूबे के चुनाव में सिरे से खारिज़ करने वालों को सत्ता से बाहर कर कर्मचारी आम चुनाव से पहले अपनी शक्ति का परिचय दे सकते हैं। जिन्हें सरकार व उसके पिट्ठू मतदाता मानने तक को राज़ी नहीं। संविदा व तदर्थ कर्मियों को नियमितीकरण के लिए पूरी दमखम के साथ हुंकार चुनावी शोर में ज़ोर से भरनी पड़ेगी। जो अभी तक दमन व दवाब के आगे दुर्बल रही है। मंझौले कारोबारियों और आयकर दाताओं को टेक्स के नाम पर लूट और मुफ्तखोरी के बढ़ावे पर छूट के विरोध में मुखर होना होगा। महिलाओं को छोटी-मोटी व सामयिक सौगात के नाम पर मिलने वाली खैरात को नकारने का साहस संजोना पड़ेगा जिस पर अभी तक लालच की परत चढ़ी नज़र आई है। उन्हें मतदान से पहले उन भेड़ों की कहानी से सबक़ लेना होगा जो एक अदद कम्बल के चक्कर में पूरे बाल मुंडा देती हैं और खुद को धन्य मानती हैं। अपने उस सम्मान की रक्षा से जुड़े कड़े प्रावधानों की मांग महिलाओं को बुलंद करनी होगी, जिसकी कीमत राजनीति घिनौनी वारदात के बाद मुआवज़े में आंकती है।
सीमांत व लघु किसानों, असंगठित श्रमजीवियों और मैदानी कामगारों को संगठित होकर अच्छे कल नहीं अच्छे आज के लिए लड़ना होगा और अपने हितों को कुचलने वालों को फ़ाइनल से पहले आईना दिखाना होगा। जिसका मौक़ा उन्हें सत्ता का सेमी-फाइनल इस महीने दे रहा है। कुल मिला कर आम मतदाताओं को चुनाव की पिच पर हाथ आए मौके को चौके में बदलना पड़ेगा। तब कहीं जाकर वे विकास की उस असली मुख्य धारा का हिस्सा बन पाएंगे, जिसके वे पूरे-पूरे हक़दार हो कर भी आज तक लाचार हैं।
विशाल धन-भंडार रखने वाले धर्मस्थलों के भौतिक विकास और विस्तार, गगन चूमती मूर्तियों व बड़े भवनों की स्थापना, योजनाओं व कस्बों-शहरों के नामों में बदलाव, बच्चों को साल में एक बार मिलने वाले उपहार, वाह-वाही और थोथी लोकप्रियता के लिए संचालित रेवड़ी-कल्चर की प्रतिनिधि योजनाओं से एक आम मतदाता को क्या लाभ है, इस पर विवेकपूर्ण विचार हर मतदाता को करना होगा। बिकाऊ और भड़काऊ मीडिया के वितंडावाद से किनारा करते हुए कथित प्रवक्ताओं और विश्लेषकों के कागज़ी व ज़ुबानी आंकड़ों की दिन में 10 बार नुमाइशों का तमाशबीन बनने से भी आम जनता को आज से आम चुनाव तक परहेज़ करना पड़ेगा। जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद सहित वंशवाद की अमरबेल को सींचने से दूरी बनाने होगी। आला दर्जे के कथित सेवक चुन कर सिर धुनने की बावलाई से उबरना होगा।झूठी नूराकुश्ती कर अंदरूनी गलबहियों में लगे पुराने और सुविधाभोगी चेहरों को पूरी तरह खारिज़ पड़ना होगा। खास कर उन चेहरों को, जो ख़ुद संघर्ष में समर्थ न होकर अपने राजनैतिक आकाओं के रहमो-करम पर निर्भर हैं और क्षेत्र में जनता के नुमाइंदे के बजाय बड़े नेताओं व दलों के ब्रांड-एम्बेसडर बने हुए हैं। जनता रूपी जनार्दन के जागने का असली समय यही है। जो 5 साल बाद ही हाथ आ सकेगा। अगर इस बार झांसे में आ कर चूके तो।
आम जनता को दलों व क्षत्रपों से बर्फ में लगे उन पुराने वादों और घोषणाओं के बारे में खुल कर पूछना पड़ेगा, जो केवल चुनावी साल में बोतल में बन्द जिन्न की तरहः बाहर आते रहे हैं। बुनियादी सुविधाओं व सेवाओं सहित मूलभूत अधिकारों को लेकर जागरूक होते हुए हरेक मतदाता को अपने उस मत का मोल समझना होगा, जो हर बार औने-पौने में बिकता आया है। हिमाचल की जनता सा स्वाभिमान और कर्नाटक की जनता सी समझ दिखाने का संकल्प भी जनता को लेना पड़ेगा। ताकि चालबाजों की खोटी चवन्नियां फिर से प्रचलन में न आ पाएं। साथ ही सत्ता के मद में आम मतदाता के कद की अनदेखी करने वालों के मुगालते दूर हो सकें। ऐसा नहीं होने की सूरत में साल की विदाई से पहले सामने आने वाले नतीजे ना तो बेहतर होंगे और ना ही जन-हितैषी।
जहां तक दलों व उनके दिग्गजों का सवाल है, उनकी भूमिका आगे भी मात्र “सपनो के सौदागर” व “बाज़ीगर” जैसी रहनी तय है। कथित दूरगामी परिणामों के नाम पर छलने और भरमाने के प्रयास हमेशा की तरह केवल माहौल बनाने के काम आए हैं और आते रहेंगे। अतीत के गौरव और अच्छे भविष्य के नाम पर जनभावनाओं को उकसाने और भुनाने के भरसक प्रयास कुटिल सियासत हमेशा से करती आई है। इस बार भी जी-जान से कर रही है। आगे भी बदस्तूर करेगी। वावजूद इसके आम जनता को यह संकेत सूबों के दंगल के बीच राजनेताओं को देना होगा कि फुटबॉल के मैच बैडमिंटन के कोर्ट पर नहीं खेले जा सकते। मतदाताओं को सुनिश्चित करना होगा कि लोकसभा चुनाव से जुड़े मुद्दे, दावे, वादे और आंकड़े निकाय और पंचायत चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में हावी और प्रभावी नहीं हो सकें। मतदाताओं को अपनी परिपक्वता व जागरुकता का खुला प्रमाण देने के लिए 2023 की रवानगी से पहले के चुनावों को सही मायने में आम चुनाव का सेमी-फाइनल साबित कर के दिखाना होगा। ताकि जनमत की शक्ति का स्पष्ट आभास उन सभी सियासी ताक़तों को हो सके, जो रियासत और सिंहासन को अपनी जागीर और पुश्तैनी विरासत मान कर चल रही हैं और जनादेश का अपमान हर-संभव तरीके से करती आ रही हैं। जिनमे क्रय-शक्ति व दमन के बलबूते जोड़-जुगाड़ से सत्ता में वापसी और जनता द्वारा नकारे गए चेहरों को बेशर्मी से नवाज़े जाने जैसे प्रयास मिसाल बनकर सामने आते रहे हैं। पांच साल बाद जन-संप्रभुता का उत्सव” मनाने वाले गणराज्य में जनमत सशक्त साबित हो, यह समय की मांग ही नहीं लोकतंत्र का तक़ाज़ा भी है। यह बात हर मतदाता को मतदान के निर्णायक पलों तक याद रखनी होगी। अन्यथा पिछली पीढ़ियों की तरह अगली पीढ़ियों के हितों व हक़ों के साथ बेरहम व बेशर्म सियासत खिलवाड़ में कामयाब होती रहेगी। जय जनतंत्र, जय जनशक्ति, जय जनादेश।।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)