■ संदेश देतीं बांस की टोकरियाँ
■ संदेश देतीं बांस की टोकरियाँ
★ मांगलिक दौर में जारी है पारम्परिक खरीद
★ “वोकल फ़ॉर लोकल” प्राचीन अवधारणा
【प्रणय प्रभात】
परम्पराओं और संस्कृतियों पर आधुनिकता व अप-संस्कृति की गर्द भले ही छाती रहे, लेकिन उसके वजूद को पूरी तरह से खत्म कर पाने का माद्दा नहीं रखती। यह संभव होता है संदेशों को अपने में समेटे परिपाटियों को सहेजने और संरक्षित रखने में भरोसा जताने वालों की वजह से। जिनकी समाज में आज भी कोई कमी नहीं है। अपने पुरखों की विरासतों को अनमोल धरोहर की तरह सहेजने वाले परिवार भली-भांति जानते हैं कि उनके पूर्वज जो रस्मों-रिवाज़ छोड़ कर गए हैं, उनमें कुछ ख़ास है, जिसका अगला पीढ़ियों को सतत हस्तांतरण कुलीन परिवारों का दायित्व भी है और समय की मांग भी।
समाज के अभिन्न अंग माने जाने वाले इन्हीं संस्कृतिनिष्ठ (परंपरावादी) परिवारों ने जहां परिपाटियों के पोषण के माध्यम से अपनी उदात्त और विराट संस्कृति को जीवंत बनाए रखा है, वहीं क्षेत्र व अंचल की अर्थव्यवस्था के आधार लघु व कुटीर उद्योगों के अस्तित्व को सहारा देने का भी काम किया है। साथ ही उन मूल्यों व परम्परागत प्रतीकों की महत्ता व मान्यता को भी बरकरार बनाए रखा है, जिनके वजूद के पीछे कोई न कोई विस्तृत सोच, उदार भावना या वैचारिक व सामाजिक सरोकार सुदीर्घकाल से मौजूद है। जो तमाम वर्ग-उपवर्ग में विभाजित मानवीय समाज को भावनात्मक रूप से जोड़े रखने का काम करते हैं।
जीवंत प्रमाण है बांस की बारीक खपच्चियों का उपयोग करते हुए पूरी कलात्मकता व कौशल के साथ तैयार की जाने वाली मज़बूत, टिकाऊ और आकर्षक टोकरियां, जिनका उपयोग आज भी न केवल घरेलू कार्यों बल्कि तीज-त्यौहारों से लेकर मांगलिक आयोजनों तक में किया जाता रहा है और परम्पराओं के अक्षुण्ण बने रहने की स्थिति में बरसों तक किया जाता रहेगा। इन दिनों जबकि मांगलिक आयोजनों का सिलसिला एक महोत्सव के रूप में जारी है तथा मांगलिक आयोजनों के महापर्व आखातीज के बाद आगामी बूझ-अबूझ सावों की अगवानी से पूर्व मांगलिक कार्यक्रमों की तैयारियों का उल्लास नगरीय व ग्रामीण जनमानस पर हावी बना हुआ है, हस्त-निर्मित टोकरियों से आजीविका चलाने वाले कामगारों की मौजूदगी उनके अपने घरेलू उत्पादों के साथ नगरी के विभिन्न चौराहों से लेकर ह्रदय-स्थल तक नजर आ रही है। जिन्हें न केवल ग्राहक हासिल हो रहे हैं बल्कि समयोचित सम्मान व उचित दाम भी मिल रहे हैं। उल्लेखनीय है कि शादी-विवाहों में मिठाइयां बांधे जाने से लेकर अन्यान्य वस्तुओं के संग्रहण तक में पारम्परिक सूपों और टोकरियों का उपयोग किया जाता है तथा यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस दौर में भी चला आ रहा है, जब घरेलू व्यवस्थाओं से लेकर कारोबारी माहौल तक प्लास्टिक, रबर और धातुओं से निर्मित मशीनी उत्पादों का दबदबा बना हुआ है।
■ सामाजिक समरसता की भी हैं संवाहक….
धार्मिक मान्यताओं व सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से पवित्र और उपयोगी माने जाने वाले बांस को श्रमपूर्वक छील कर बारीक़ तीलियों में तब्दील करते हुए श्रमसाध्य बुनावट के साथ तैयार की जाने वाली टोकरियों और सूपों के साथ-साथ गर्मी में हवा देने वाले पंखों (बीजणी) और झाडुओं का बाजार शहर से लेकर गांव-देहात की हाटों तक हमेशा एक जैसा रहा है। विशेष बात यह है कि हर छोटी-बड़ी नगरी में लघु या घरेलू उद्योग के तौर पर शिल्पकारी को आजीविका के तौर पर अपनाने वाले कामगारों में अधिकता बाल्मीक व अन्य जनजातीय समाज के सदस्यों की है। जो मांगलिक आयोजनों के दौर में प्रयोजनवश ले जाई जाने वाली टोकरियों और सूपों के बदले उचित क़ीनत ही नहीं बल्कि शगुन के तौर पर नेग तक हासिल करते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे मिट्टी के घड़े, कलश, दीये, सकोरे बनाने वाले कुम्हार व पाटे, चौकी, मढ़े और तोरण बनाने वाले बढ़ई। इसे ऊंच-नीच के भेद-भाव से दूर समरसता की मिसाल समझा जाना चाहिए। जो आज के बदलते दौर की आवश्यकता भी है और सामाजिक एकीकरण का एक सशक्त माध्यम भी।
विकासशीलता के दौर में परम्पराओं के नज़रिए से देखा जाए तो शगुन के प्रतीक लाल रंग के महावर की लकीरों से सजी बांस की साधारण सी इन टोकरियों को सामाजिक समरसता की उस परम्परा का असाधारण संवाहक भी कहा जा सकता है, जो सदियों से उपेक्षित एक समुदाय के सम्मान और आत्म-निर्भरता का प्रतीक बनती आ रही हैं। टोकरी व सूप सहित अन्य सामग्रियों के उपयोग की दरकार यह भी साबित करती है कि “वोकल फ़ॉर लोकल” जैसी अवधारणा कोई नई बात नहीं है। यह संदेश तो हमारे पूर्वज सदियों से देते आए हैं। यह हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की महानता व सर्वकालिकता का एक जीता-जागता उदाहरण है और हमेशा रहेगा।
■संपादक■
न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)