■ व्यंग्य आलेख- काहे का प्रोटोकॉल…?
■ प्रोटोकॉल से परे मख़ौल है जहां की परिपाटी
★ बर्चस्व की जंग, कार्यक्रमों का कूंडॉ
【प्रणय प्रभात】
आपने प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाने वाले आयोजन कई बार देखे होंगे। बावजूद इसके ऐसा कहीं नहीं देखा होगा कि समूचे प्रोटोकॉल को तहस-नहस कर दिया जाए। साथ ही एक मनमाना प्रोटोकॉल परिपाटी बना दिया जाए। इस नायाब कारनामे को अंजाम देने वाला पहला ज़िला शायद श्योपुर है। जहां आयोजन के नाम पर सारे औपचारिक विधानों को खुल कर धता बताई जाती है। मध्यप्रदेश के इस ज़िले में आयोजन परम्परा से खिलवाड़ की एक परम्परा बन गई है। जिससे पीछा छुड़ा पाना मुमकिन ही नहीं नामुमकिन सा हो गया है।
प्रदेश की सरहद पर बसे श्योपुर ने मंचीय आयोजन की हर हद को पार करने का कीर्तिमान अपने नाम बनाए रखने की मानो शपथ सी उठा ली है। तभी यहां मंच पर सभापति (अध्यक्ष) से ऊंचा दर्ज़ा मुख्य अतिथि का माना जाता है। जिसके पीछे बर्चस्व की दिमागी जंग बड़ी वजह होती है। इससे भी बड़ी हास्यास्पद स्थिति यह है कि अधिकांश आयोजन में मेज़बान ख़ुद ही मेहमान बन जाते हैं। घराती और बराती की भूमिका एक साथ निभाने के शौक़ीन यहां हर कार्यक्षेत्र में मौजूद हैं। फिर चाहे आयोजन प्रशासनिक हो, राजनैतिक हो, संस्थागत हो या विभागीय।
मज़े की बात तो यह है कि जिनके कंधों पर आयोजक के रूप में ज़िम्मेदारी होती है, अक़्सर वही अतिथि रूप में मंच पर विराजमान दिखाई देते हैं। इसी शौक़ के चलते ज़्यादातर आयोजन जेबी या घरेलू से प्रतीत होते हैं। जिन्हें महज रस्म-अदायगी से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता। इस खेल के पीछे की असली मंशा जंगल के मोर जंगल मे नचा कर बज़ट या मद का सूपड़ा साफ़ करने की होती है। गाहै-बगाहे कुछ बाहरी लोगों को मंच साझा करने का मौक़ा चाहे-अनचाहे दिया जाता है। जिनमें या तो रसूखदार लोग शामिल होते हैं या फिर वो चहेते जो चापलूसी और कसीदाकारी में माहिर हैं। सबसे आसान अतिथि यहां उन्हें माना जाता है, जो एक आदेश पर घण्टों के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।
प्रोटोकॉल-विरुद्ध मंचीय आयोजन के दौरान सबसे ज़्यादा धर्मसंकट निरीह संचालक के सामने होता है। जिसे स्वागत और संबोधन दोनों प्रक्रियाओं को चाहे-अनचाहे उलटना-पलटना पड़ता है। न पलटे तो मुख्य अतिथि ख़ुद शर्म-हया को ताक में रखकर उसे इसके लिए बाध्य करते देखा जा सकता है। मानसिकता ख़ुद को सबसे आला साबित करने की होती है। फिर चाहे अध्यक्ष की आबरू का सरे-आम कूंडा ही क्यों न हो जाए।
इस परिपाटी के चलते लगभग हर आयोजन में संचालक की मजबूरी होती है कि वह अध्यक्ष से पहले मुख्य अतिथि को माल्यार्पण करवाए और मुख्य अतिथि को भाषण के लिए सभापति (अध्यक्ष) के बाद आमंत्रित करे। मंचीय परम्परा से खिलवाड़ की इस बेहूदी परिपाटी ने अध्यक्ष की आसंदी को इतना हल्का बना दिया है कि उस पर बैठने के लिए हल्का आदमी ही मुहैया हो पाता है। जबकि मुख्य अतिथि बनने के लिए तमाम लोग आयोजकों की मनुहार तक करने से नहीं चूकते।
आलम अक़्सर यह होता है कि फोकट का चन्दन घिसने के लिए बुलाया जाने वाला नंदन (मंच संचालक) अध्यक्ष और मुख्य अतिथि के बीच प्रतिष्ठा की जंग में दो पाटों के बीच फंसे होने तक की अनुभूति करता है। यह अलग बात है कि माइक पकड़ने और सुर्खी में रहने का कीड़ा उसे बारम्बार ज़लालत के बाद भी आयोजन में खींच लाता है। कुछ शासकीय सेवक होने के कारण हुक्म-अदूली नहीं कर पाते और मन मसोस कर इस भूमिका का निर्वाह करते दिखते हैं। जिनसे अध्यक्ष और मुख्य अतिथि दोनों का रसूख ज़्यादा होता है। लिहाजा उनका जोख़िम भी बढ़ जाता है। तमाम बार आयोजकों को अतिथियों के साथ बिन बुलाए आने वाले पुछल्लों को भी अतिथि बनाकर मंच पर बैठाना पड़ता है। जिन्हें माननीय, सम्माननीय, आदरणीय और श्रद्धेय कहना बेचारे संचालक की भी विवशता बन जाता है। सम्भवतः यही वजह है कि तमाम ग़ैरतमंद लोग यहां संचालन से दामन झटक चुके हैं। जिनकी जगह विरदावली गाने और कोलाहल मचाने वाले विदूषकों ने ले ली है।
जो गरिमामयी आयोजन की गरिमा को तार-तार कर के ही दम लेते हैं। गला फाड़-फाड़ कर तालियां पिटवाने के आदी इस श्रेणी के संचालक यहां आयोजक व अतिथि दोनों को रास आते हैं, क्योंकि उनका अपना स्तर भी तालियों और तारीफ़ों पर निर्भर करता है।
मज़े की बात यह है आयोजन के लिए अतिथि चयन का भी ज़िले में कोई आधार नहीं। गूगल बाबा की कृपा से हर छुटभैया हर किसी विषय पर भाषण करने में निपुण होता है। लिहाजा आयोजक भी खानापूर्ति के लिए किसी ऐसे को बुला लेते हैं, जो आसानी से आ धमके। इसके लिए न सम्वन्धित विषय का अनुभव आवश्यक है व विषय सम्मत विशेषज्ञता। इससे भी अधिक हास्यास्पद बात यह है कि यहां आयोजन और वक्ता के बीच गुण-धर्म का मिलान भी मायने नहीं रखता। यहां सरदार भगत सिंह से जुड़े आयोजन में गांधीवादी तो बापू से जुड़े कार्यक्रम में गोड़सेवादी मुख्य वक्ता बनते देखे जा सकते हैं। बस उनके नाम के साथ एक ओहदा जुड़ा होना चाहिए। इसे आयोजनकर्ताओं की मूर्खता से अधिक अतिथियों की सैद्धांतिक बेशर्मी भी कहा जा सकता है। इसी तरह दाढ़ में तम्बाकू दाब कर व्यसन-मुक्ति पर बोलने वाले धुरंधर भी यहां कम नहीं। नशे के ख़िलाफ़ बोलने वाले देवदास प्रेरक के बजाय उपहास का पात्र बनें तो बनते रहें। आयोजकों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। कल को शाकाहार पर मांसाहारी और मांसाहार पर शुद्ध शाकाहारी व्याख्यान देते नज़र आएं तो कोई ताज्जुब नहीं। शर्मनाक स्थिति तब उत्पन्न होती है जब बेसुरे लोग सुरीले आयोजन में निर्णायक बने नज़र आते हैं। यही नहीं, साहित्यिक व अकादमिक आयोजन की अध्यक्षता अक़्सर उनके सुपुर्द की जाती है, जिनका साहित्य की किसी विधा से दूर-दूर तक कोई नाता न हो। चाहे जिसे “समाजसेवी” का तमगा लगा कर मंच पर थोपना यहां की प्राचीन परंपरा है। जेबी संगठनों के स्वयम्भू व स्वनामधन्य नुमाइंदे अतिथि रूप में बारहमासी फूल की तरह उपलब्ध होते हैं।
कुल मिला कर आयोजन के नाम पर विषय, प्रसंग, विभूति और दिवस के प्रति सम्मान की मंशा मख़ौल साबित होती देखी जाती है। जिसके पीछे असंबद्धता और चाटुकारिता बड़ी वजह है। इससे भी बड़ी वजह है कृतार्थ होने की स्वार्थी सोच के साथ अपात्रों को उपकृत करते रहना। भले ही कुछ अच्छा पाने की चाह में आए या दवाब बना कर लाए गए दर्शकों व श्रोताओं का टाइम ही खोटा क्यों न हो। दुर्भाग्य की बात यह है कि ऐसे आयोजनों के नाम पर खरपतवार की खेती करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र में प्रबुद्ध कहलाते हैं और झूठे-सच्चे बिशेषणों से अलंकृत होकर सुपात्रों के अधिकारों का हनन वैसे ही करते हैं, जैसे सरकारी या संस्थागत बज़ट में सेंधमारी। लगता नहीं है कि कुत्सित राजनीति इस बीमारी को कभी ठीक होने देगी, ज्योंकि उसकी अपनी दुकान ऐसी दीमकों के पालन का सामान बेच कर चल रही है। भगवान भली करे।।
■ प्रणय प्रभात ■
संपादक / न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)