■ लघुकथा / सौदेबाज़ी
#लघुकथा
■ सोचिए ! फ़र्क़ क्या…?
【प्रणय प्रभात】
“इसे साल भर मेहनत से पाल-पोस के मेमने से बकरा बनाया है जनाब! माल खिलाया है माल। ऐसे ही नहीं चढ़ी है चर्बी। अब लेना है तो माल भी उसी हिसाब से देना पड़ेगा।”
सड़क पर एक हट्टे-कट्टे बकरे की रस्सी पकड़े खड़ा उसका मालिक ग्राहक को समझा रहा था। उसके पालन-पोषण पर हुए खर्चे का ब्यौरा भी दे रहा था।
संयोग से इसी समय सड़क किनारे के एक घर में भी ऐसा ही कुछ चल रहा था। जहाँ एक लड़के का बाप उसे देखने आए लड़की के माँ-बाप से मोल-भाव के अंदाज़ में बोल रहा था-
“लाड़-प्यार से पाला है साहब बेटे को। कॉन्वेंट से प्रायवेट कॉलेज तक पढ़ाने-लिखाने में 50 लाख खर्च किए हैं। तब कहीं आज ऊंचे ओहदे पर है। अब उसे अपना दामाद बनाना है तो इससे दो-तीन गुना खर्चा तो करना ही पड़ेगा ना…? वैसे भी कितनी मंहगाई का दौर है। यही रक़म कहीं और इन्वेस्ट करते तो कम से कम ढाई करोड़ मिलते आज की तारीख़ में।”
अब सोचने वाली बात बस इतनी सी है कि बकरे और लड़के तथा कसाई और बाप में अंतर क्या बचा…??
■प्रणय प्रभात■
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
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