■ मुद्दा / पूछे जनता जनार्दन…!!
■ ऐसे हितैषी, कैसे हितैषी…?
◆ अब ज़रूर सोचे जनता जनार्दन
【प्रणय प्रभात】
महज दो-चार सौ रुपल्ली के किराए वाले फ़र्श और हज़ार पांच सौ के भाड़े पर माइक। सरकारी सड़क और चाहे जब सियासी या जेबी संगठनों का अनियंत्रित और उपद्रवपूर्ण तांडव। घण्टों के लिए अड़ियल भीड़ के इर्द-गिर्द फंसे खड़े वाहन। गला फाड़ कर भड़ास निकालते कथित नेता और तालियां कूटते निठल्ले। बीते दो दशकों से आए दिन की आपदा बन चुके चक्का-जाम आंदोलन और खामियाज़ा भोगती निरीह जनता। जिसे अक्सर इस तरह के अराजक आंदोलनों की आपदा भोगनी पड़ती है। वो भी केवल इसलिए कि भीड़ जुटा कर शक्ति-प्रदर्शन करने वालों की सियासत बाटा के जूतों की तरह चमकती रहे।
ख़ुद को आम जनता के रूप में पीड़ित, वंचित, शोषित समुदाय का हमदर्द व मददगार बताने वालों की करतूत न सत्ता-मद में चूर राजनेताओं पर असर डालती है। ना ही प्रशासन के कारिंदों को प्रभावित कर पाती है। हुड़दंग और हंगामे की शक्ल वाले यह आंदोलन परिणामकारी हो तो भी कोई समस्या नहीं। शर्मनाक सच यह है कि इनका हश्र झूठे आश्वासनों से बहल जाने वाली हठ से अधिक कभी नहीं होता। हां, आम जनता ज़रूर अनचाही मुसीबत भोगने पर बाध्य होती है।
कष्ट तब होता है जब अगली यात्रा के लिए अरसा पहले बनवाए गए मूल भाड़े से मंहगे टिकट कागज़ का टुकड़ा बन कर रह जाते हैं। देश की तरुणाई अपने भविष्य निर्माण से जुड़े अवसरों से वंचित हो जाती है। पीड़ित व रोगी इस धींगामस्ती की वजह से अकारण घर और गंतव्य के बीच फंसे तकलीफ भोगते हैं। भूख-प्यास, क्लेश और मौसम की मार यात्री वाहनों में भेड़-बकरी की तरह भरी उस जनता को ही भोगनी पड़ती है, जिसे आन्दोलनवीर चुनाव काल मे जनार्दन कहते नहीं अघाते।
विडम्बना की बात यह है कि सियासी दुनिया के कालनेमियों और स्वर्णमृग नज़र आते मारीचों की हरकतों को आम जनता दो दिन कोसने के बाद भुला देती है। नतीजतन कथित नेताओं को चार दिन बाद हुड़दंग का नया मौका मिल जाता है। संवेदनाहीन सरकार और मदमस्त अफसरों पर ऐसे भोंडे प्रदर्शनों का असर पड़ता होता, तो आज देश में अनगिनत समस्याओं का वजूद नहीं होता। हैरत की बात है कि घण्टों गला फाड़ने और पसीना बहाने वाले अंततः आश्वासनों के झुनझुने को अपनी उपलब्धि मान कर गड़गच हो जाते हैं और उनके पिछलग्गू थोथी कामयाबी पर कुप्पे की तरह फूले नहीं समाते।
सोचिएगा कि आखिर ऐसे मदांधों से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि अगर आंदोलन अमोघ-अस्त्र था तो एक ही समस्या अगली बार, बार-बार रक्तबीज बनकर कैसे उभरी? अपनी भाग्य-विधाता जनता के साथ बेनागा खिलवाड़ के शौकीनों को अब अपना ढर्रा बदलते हुए विरोध की नई रणनीति बनाने पर विचार करना चाहिए। ताकि आम जनता उनकी रहज़नी रहनुमाई का खामियाज़ा भुगतने से बच सके। साथ ही आंदोलन प्रभावी व परिणाममूलक साबित हों।
कथित व तथाकथित नेताओं को भी समझना होगा कि अगर आपको लगता है कि आम जन को आपकी समस्या से गुरेज है, तो यह सही नहीं है। आप सोचें कि आपके आंदोलन से किसी को परहेज़ है, तो भी आप ग़लत हैं। आम जन को दिक़्क़त दरअसल आपके तौर-तरीकों से है। वही तऱीके जो अब नाकाम और भोंथरे हो चुके हैं। आम आदमी की परेशानी यह है कि आप अपने गुस्से की मिसाइल सिस्टम के बजाय जनता पर गिराने लगते हैं। जिसे किसी भी नज़रिए से जायज़ नही माना जा सकता।
आपको समझना होगा कि आपकी नाकामी और परेशानी आपका अपना दुरंगापन है। आपको एक बार मे घराती-बराती दोनों बनने का चस्का जो लगा हुआ है। मुसीबत यह है कि आपको जिनकी लग्ज़री गाड़ियों के पीछे धूल फांकते हुए भागना है। जिनके स्वागत, वन्दन, अभिनंदन में पलक-पाँवड़े बिछाना है। जिनके साथ तस्वीर को सर्वत्र प्रसारित कर ख़ुद को महिमा-मंडित करना है। उन्ही को आपदा वाले सीज़न में लोक-दिखावे के लिए कोसना, गलियाना व ललकारना भी है। केवल अपने पुछल्लों को अपना पौरुष दिखाने और लोगों को भरमाने के लिए। यदि आप मे साहस और दम है तो उनका हुक्का-पानी पहले बन्द करो, जो सिर्फ छलिया हैं और आपकी आपदा के सबब भी।
पुछल्ले बनने वालों! आपको भी याद रहे। आप पाञ्चजन्य प्रतीत होने वाले ढपोरशंखों की आवाज़ पर जिस भी जंग में कूदोगे, केवल हारोगे। गड़बड़ की सूरत में अज्ञात आरोपी के रूप में दमन के निशाने पर आते रहोगे। जबकि आपके सूरमाओं को तो नामज़द आरोपी बनने के बाद भी उनके आका और काका बचा कर ले जाएंगे। पुरुषार्थ हो तो अपने रहनुमाओं से पूछो कि जाम, धरना, प्रदर्शन सिर्फ राजमार्ग पर ही क्यों? घेराव शासन-प्रशासन के ठेकेदारों व कारिदों के बंगलों से कार्यालयों के बीच की सड़क का क्यों नहीं? हिम्मत हो तो बेबस जनता की जगह राजनेता के काफिले की घेराबंदी करो। पूछो गंगा जाकर गंगादास व जमुना आकर जमुनादास बनने वाले बिचौलियों से कि क्या उनमें साहस है सरकार के नुमाइंदों व उनसे जुड़े आयोजनों के बहिष्कार का? यदि नहीं, तो झूठमूठ का बावेला क्यों? थोड़ी भी अक़्ल या गैरत हो तो अपने नेताओं को एक बड़ा सच समझा कर दिखाओ। आंदोलन को अधिकार बताने वालों से कहो कि संविधान को एक बार सलीके से पढ़ भी लें। संविधान में एक भी प्रावधान नहीं, जो आपको औरों के अधिकारों के हनन की छूट देता हो। यह सनद रहे हमेशा के लिए। जो जनहित में भी है और राष्ट्रहित में भी। सार्वजनिक साधन-संसाधन संपदा किसी दल या नेता की बपौती नहीं। आपकी अपनी धरोहर है, जो विरासत के रूप में भावी पीढी को सौंपी जानी है। इन धरोहरों को क्षति पहुंचाने के कुत्सित प्रयासों से परहेज़ करें। झूठे उकसावे और बहकावे में आकर भीड़ में शामिल भेड़ न बनें। आज जो संकट आप आम जनता के लिए पैदा कर रहे हैं, वे कल आपके व आपके अपनो के लिए भस्मासुर साबित हो सकते हैं। ईश्वर आपको सद्बुद्धि प्रदान करे।
★प्रणय प्रभात★
श्योपुर (मध्यप्रदेश)