■ मदमस्त तंत्र…
■ आज की मस्ती, कल की पस्ती
【प्रणय प्रभात】
जैसे एक अधजली बीड़ी या सिगरेट पूरे खेत या जंगल को तबाह कर देती है। जिस तरह शॉर्ट-सर्किट की एक चिंगारी बहुमंज़िली इमारत को फूंक देती है। उसी तरह अनदेखी की राख के नीचे छिपी उन्माद की आंच न केवल एक बस्ती बल्कि शहर को फूंकने का माद्दा रखती है। जिसका विस्तार देश को भी अपनी जद में ले सकता है। उग्रवाद, आतंकवाद के झोंके को झंझावात बनते देख चुकी सरकार आखिर हर बार बड़े खतरे खतरे की आहट को भांपने में कोताही क्यों बरतती है? देश को पूछना चाहिए। ख़ास कर उन सुलगते हालातों में, जो इस समय अनहोनी का कारण बने हुए हैं और कल कहर ढा सकते हैं।