■ प्रसंगवश…एक प्रसंग
#प्रसंगवश…
■ एक और प्रसंग
【प्रणय प्रभात】
आपको रामायण के “अरण्य-कांड” का “जयंत प्रसंग” तो याद होगा। श्री राम प्रभु को भगवती सीता का श्रृंगार करते देख जयंत को भ्रम हुआ। देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने राम जी की परीक्षा का दुस्साहस किया। काग-रूप में मां सीता के श्रीचरणों में चोंच का प्रहार किया और उड़ चला। उसे पता नहीं था कि प्रभु द्वारा तीर बना कर छोड़ी गई सींक उसके पीछे लग जाएगी। रक्षा न इंद्रलोक में होगी, न ब्रह्मलोक में। यहां तक कि देवाधिदेव महादेव भी उसे शरण नहीं देंगे। अंततः लौटना उन्हीं चरणों मे पड़ेगा, जिन पर प्रहार किया गया था। प्राणदान तो दयावश मिल जाएगा, किंतु एक नेत्र गंवा कर। छोटा सा यह प्रसंग एक बार फिर प्रासंगिक हो रहा है।
अनगिनत जयंत मति-भ्रष्ट हो कर वही चेष्टा कर रहे हैं। जानकी-रूपा आस्था पर प्रहार का दुस्साहस दिखा रहे हैं। बाप-दादा कलिकाल के प्रभाव में प्रश्रय देने की धृष्टता कर रहे हैं। उन्हें संभवतः आभास नहीं कि करुणा-निधान की दृष्टि उनकी धूर्त्तताओं पर है। कुकर्म का दंड मिलना अवश्यम्भावी है। सहिष्णुता के राम का कोप उन्हें भोगना ही पड़ेगा। प्राण भले ही बच जाएं। एक अंग तो नष्ट होकर ही रहेगा। इस बार आंख नहीं संभवतः जीभ। जो अति-उद्दंड और विषाक्त बनी हुई है। यह एक अटल सनातनी का अखंड विश्वास है। जो कदापि खंडित नहीं होगा। बोलो जय राम जी की।।
【प्रणय प्रभात】