■ पूरे है आसार…
■ मच सकता है हाहाकार…
★ लोकशाही के नाम पर जारी तैयारी
【प्रणय प्रभात】
क्या आपको “लोकतंत्र” में लाठी, गाली, दमन, शोषण, हठधर्मिता, मनमानी, तानाशाही, लूटमार, षडयंत्र,चालबाज़ी, दबंगई, ढीठता, निरंकुशता, उद्दंडता आदि-आदि की कोई जगह दिखती है क्या…? पूछा जाए तो जवाब मिलेगा- “बिल्कुल नहीं।” लेकिन होता है पूरी तरह वही, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ शर्मनाक है। प्रमाण हैं बीते साल वाले राजधानी के मंज़र, जिनके आसार शायद इस बार भी बन जाएं। आबादी के विस्फोट और आज़ादी के अर्थ में खोट वाले एक लोकतंत्रिक देश मे चुनावी साल बिना बवाल, बिना धमाल गुज़र जाए। ऐसा कैसे हो सकता है? होगा तो कथित लोकतंत्र की उस आन-बान-शान को बट्टा नहीं लग जाएगा, जो जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जनाधार, तुष्टिकरण, ध्रुवीकरण जोसे मूलतत्वों पर टिकी है? हाल-फ़िलहाल लग रहा है कि पुराने मुद्दे पर नए बखेड़े की स्क्रिप्ट लिखी जा रही है। जिसका मंचन 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर या उसके उपलक्ष्य में निकट भविष्य में हो सकता है। सभी पात्र अपनी अपनी भूमिका अदा करने को तैयार बैठे हैं। लोकशाही के नाम पर सियासत के बैनर तले बन रही फ़िल्म के ट्रेलर सामने भी आने लगे हैं। हुड़दंग और हंगामे से भरपूर राजनैतिक मूवी में नज़र आने वाले अपने-अपने मेकअप, सेटअप और गेटअप में व्यस्त हैं। जिन्हें जलवा पेलने के लिए किसी शिक्षण-प्रशिक्षण की भी कहीं कोई ज़रूरत नहीं। शायद यह भी लोकतंत्र के जलसे का एक नया वर्ज़न है। जिस पर सेंसरशिप का कोई नियम लागू नहीं। देश की जनता टेक्स-फ्री नूराकुश्ती को देखने की आदी हो ही चुकी है। न्यूज़ चैनल्स अपनी टीआरपी को बूस्ट व बूम देने वाले हुजूम की परफॉर्मेंस को प्रसार देने के लिए बेताब है। कुल मिला कर संप्रभुता का समारोह मनाने की पूर्व-तैयारियां ज़ोर-शोर से चल रही हैं। क़यासों, अटकलों और आसारों के बीच मुझे याद आ रहा है किसी उस्ताद शायर का यह शेर-
“हरेक काम सलीके से बांट रक्खा है।
ये लोग आग लगाएंगे, ये हवा देंगे।।”
कुल मिलाकर उपद्रवियों के निशाने पर देश की अस्मिता की प्रतीक राजधानी दिल्ली ही रहने वाली है। जहां उन्माद की वजह और उन्मादियों के चेहरे बदल सकते हैं बस। मंशा वही, दुनिया मे देश की बदनामी और गणतंत्र दिवस की चाक-चौबंद तैयारियों में व्यस्त पुलिस को झंझटों में उलझाना। ताकि इसका लाभ राष्ट्र-विरोधी ताक़तें आसानी से उठा सकें, जो किसी वारदात को अंजाम देने की ताक में लगातार जुटी हुई हैं। ऐसे में यदि कोई अनहोनी होती है तो जवाबदेही किसकी होगी? यह तंत्र तय करे, जो पिछले फ़सादों के दौरान भी दिल्ली पुलिस की तरह बेबस नज़र आया था। केवल इस बहाने की आड़ लेकर, कि उन्माद पर आमादा बाहरी नहीं भारतीय ही थे। ख़ुदा ख़ैर करे…।।
【संपादक】
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