■ धर्म चिंतन…【समरसता】
#आभास_की_आकृति
■ निराकार का प्रतिबिम्ब है साकार…!
【प्रणय प्रभात】
धर्म धारणा गढ़ने या मढ़ने का नहीं धारण करने का विषय है। वो भी सम्पूर्ण आस्था, मनोयोग व एकाग्रता जैसे भावों के साथ। त्रासदी यह है कि सत्य-सनातन धर्म को लेकर धर्म-प्रेमियों में ही मत-मतांतर की स्थिति बनी हुई है। जो निर्रथक तर्क-वितर्क के बीच धर्म के उपहास का कारण है। एक समय तक शैव, वैष्णव और शाक्त के रूप में विभाजित सनातन साकार-निराकार जैसे शब्दों के आधार पर भी विखंडन की ओर है। जिसे मत, संप्रदाय और पंथ विविधता अलग से छिन्न-भिन्न किए हुए है। स्थितियां धर्म और धर्मनिष्ठ दोनों के लिए घातक हैं। आज जबकि चौतरफा षड्यंत्रों व आक्रमणों का क्रम तीव्र हो रहा है, आवश्यकता अखंडता के प्रयासों की है। वो भी दृढ़ इच्छाशक्ति और शुद्ध अंतःकरण के साथ।
इसके लिए सबसे पहले यह स्वीकारा व आत्मसात किया जाना परम् आवश्यक है कि “श्रद्धा तर्क नहीं विश्वास का विषय है।” यह और बात है कि हमारी उपासना पद्धति और मार्ग विविध हो सकते हैं। समझा जाना अनिवार्य है कि एक दूसरे का विरोध और खंडन पूरी तरह आत्मघात से कम नहीं। समय की सबसे बड़ी मांग साकार (सगुण) व निराकार (निर्गुण) ब्रह्म को लेकर प्रचलित भ्रांतियों का शमन है। जो मानसिकता को विकारी व पूर्वाग्रही बनाती आ रही हैं। भ्रांतियों से उबरे बिना न हम एक रह सकते हैं और न ही निर्विकारी। यह सत्य सहजता से स्वीकारते हुए सभी को धर्म की मूल भावनाओं के प्रति प्रेरित करने के प्रयास अब समय की पुकार बन चुके हैं।
वस्तुतः साकार और निराकार परस्पर विरोधी नहीं पर्याय व पूरक हैं। जिनके बीच एक सैद्धांतिक तारतम्य भी है और सह-अस्तित्व की भावना भी। निराकार परमात्मा की सृष्टि में साकार ब्रह्म वैसा ही है, जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब। जो आभासी होने के बाद भी न मिथ्या हो सकता है और न काल्पनिक। निराकार यदि जल है तो साकार बर्फ। ऐसे में तथ्य को परिभाषित यह कहते हुए भी किया जा सकता है कि “निराकार के आभास की आकृति ही साकार है।”
निराकार और साकार को “अद्वेत” की जगह “द्वैत” ठहराने के प्रयास पूर्वाग्रह से पृथक नहीं। एक विचारधारा की आड़ लेकर दूसरी पर प्रहार करने वाले शायद अपनी विचारधारा के प्रति भी ईमानदार नहीं। होते तो “साकार” को अमान्य करने से पहले सौ बार अपने मत के सिद्धांतों पर चिंतन करते। जिसमे सृष्टि के मूलाधार भगवान भास्कर सहित पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल और वायु को देव माना गया है। जो सभी गोचर अर्थात साकार रूप में हैं। यदि न होते तो प्रत्यक्ष दृष्टिगत भी नहीं होते। आश्चर्य होता है जब दिखाई देने वाले अन्न, वृक्ष, गौवंश को ईश्वरीय प्रतीक मातने मालने वाले प्रतिमा पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। जब स्वधर्मी ऐसा करेंगे तो विधर्मी ऐसा क्यों नहीं करेंगे?
हवन, पूजन, पाठ, मंत्रोच्चार, ध्यान, साधना, नाद, भजन, उपदेश, प्रवचन जैसे अनगिनत साम्य की अनदेखी कर दो-चार भिन्नताओं पर अरण्यरोदन क्यों? विचार अब इस प्रश्न पर भी होना चाहिए ताकि अनुचित दूरियां सामीप्य में परिवर्तित हों। जिनके अभाव में दोनों न केवल विरोधाभासी बल्कि अलग-थलग भी दृष्टिगत होती हैं। मूलतः यह क्षति दोनों दृष्टिकोणों को है, जो दो नेत्रों के समान हैं।
मानस में प्रश्न उपजता है कि दोनों धाराएं नेत्रों के समान समरस क्यों नहीं होतीं। उन नेत्रों के समान जो एक दूसरे के समक्ष न होने के बाद भी समान रूप से क्रिया प्रतिक्रिया करती हैं। जीवन भर एक-दूसरे को न देख पाने के बाद भी एक साथ खुलती-बन्द होती हैं। भले-बुरे भाव अतिरेक में एक साथ भीगती हैं। परस्पर मिल कर सृष्टि के प्रत्येक अंश व दृश्य को एकरूपता के साथ निहारती व परखती हैं। क्या दोनों धाराएं दो पगों की तरह एकात्म नहीं हो सकते जो साथ मिल कर स्थिर रहते हुए देह को आधार देते हैं। यही नहीं, एक-दूजे के सम्मान में क्रमपूर्वक आगे-पीछे हो कर उस “गति” को जन्म देते हैं, जिसके बिना “प्रगति” की कल्पना तक नहीं की जा सकती। क्या दोनों धाराओं को एक नासिका के दो छिद्रों की तरह अनुगामी नहीं होना चाहिए, जिन पर जीवन की आधार श्वसन क्रिया निर्भर है। जो किसी भी अच्छी-बुरी गंध को एक साथ समान रूप से भांपते हैं? दोनों धाराएं विपरीत दिशाओं की ओर उन्मुख कानों की तरह मतैक्य नहीं रख सकतीं, जो ध्वनि को समान रूप से एक साथ ग्रहण करते हैं?
नहीं भूला जाना चाहिए कि विद्वतजन प्रवचन में लौकिक दृष्टांतों, उद्धरणों व प्रसंगों का सहज प्रयोग करते हैं। मनीषी जानते हैं कि सरस-सरल उदाहरणों के बिना अलौकिक गूढ़-ज्ञान और ग्रंथों का ज्ञान दे पाना संभव नहीं। स्पष्ट संदेश है कि निराकार के प्रति रस और विश्वास बढ़ाने का माध्यम साकार है। ध्वनि से अनुगुंजित उस प्रतिध्वनि की तरह जो परिस्थिति के अनुसार पुनरावृत्ति करती है। हो सकता है कि कुतर्की सोच को श्रेष्ठता का मापक मानने वाले सामंजस्य व समरसता से सम्बद्ध उक्त तथ्यों से असहमत हों। इसके बाद भी सकारात्मक सोच व आशावाद भरोसा दिलाता है कि अनेक नहीं किंतु कुछेक की सहमति मेरी समयोचित भावना उर और समयानुकूल चेतना के पक्ष में हो सकती है। जो चिंतन, मनन व लेखन की सार्थकता भी होगी और ऊर्जा प्रदान करने वाली वैचारिक सम्मति भी।
जय जगत। जय सियाराम।।
★प्रणय प्रभात★
संपादक / न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)