■ दास्य भाव के शिखर पुरूष गोस्वामी तुलसीदास
■ दास्य भाव के शिखर पुरूष गोस्वामी तुलसीदास
● धर्म साहित्य में रुचि रखने वालों और विद्यार्थियों के लिए
【 प्रणय प्रभात】
एक प्रेरक वक्ता के रूप में लगभग डेढ़ दशक सक्रिय रहा। ईश कृपा से एक हज़ार से अधिक कार्यक्रमों में उद्बोधन का अवसर मिला। श्री रामचरित मानस के महान पात्र व प्रसंग मेरे वक्तव्यों में सहज ही शामिल रहे। क्योंकि जीवन पर इस महाग्रंथ का सर्वाधिक प्रभाव रहा।
हिंदी साहित्य के विद्यार्थी के रूप में भी गोस्वामी तुलसीदास जी मेरे सर्वाधिक प्रिय कवि रहे। संवाद शैली में अपने उद्बोधन के बीच प्रश्न करना मुझे सदैव भाया। इससे वक्ता व श्रोताओं के बीच एक रुचिकर सामंजस्य जो स्थापित होता है।
कई कार्यक्रमों में मैंने यह प्रश्न विद्यार्थियों के बीच रखा कि “बंदहु गुरु पद पदमु परागा, सुरुचि सुवास सरस अनुरागा” में गोस्वामी जी ने किस की वंदना की है। हर बार सतही उत्तर मिला- “गुरु चरणों की।” चौपाई के मर्म तक विद्यालय क्या महाविद्यालय के विद्यार्थी भी नहीं पहुंचे। यूँ भी कह सकते हैं कि उन्होंने महाकवि की अगाध श्रद्धा के स्तर को जानने का प्रयास ही नहीं किया।
ऐसे तमाम विद्यार्थियों को बताना पड़ा कि इस एक चौपाई में गुरु या गुरु चरण नहीं बल्कि #चरण_रज (धूल) की वंदना की गई है। जो गोस्वामी जी को दास्य भाव का सर्वोत्कृष्ट कवि सिद्ध करती है। इस चौपाई का भावार्थ दास्यभाव का उत्कर्ष है। महाकवि की गुरु के प्रति विनम्र आस्था का प्रमाण भी।
स्मरण रहे कि यह वंदना श्री हनुमान जी महाराज के श्रीचरणों की है। जिनकी प्रेरणा से श्री तुलसीदास जी ने इस संसार को श्री रामचरित मानस जैसा महान ग्रंथ दिया। गुरु के कमल रूपी चरणों के परागकण अर्थात रज-कण की वंदना कर बाबा तुलसीदास जी ने गुरु-महात्म्य को नए आयाम भी दिए। जिनके लिए गुरु चरणों में आसक्त प्रत्येक गुरुभक्त को उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।
ध्यान रहे कि दास्यभाव की पराकाष्ठा का यह एकमात्र उदाहरण नहीं है। बाबा तुलसी श्री हनुमान चालीसा का श्रीगणेश “श्री गुरु चरण सरोज रज” के साथ करते हुए गुरु चरणों की रज के प्रति अपनी इसी निष्ठा को दोहरा चुके हैं। क्या हम अपने अंदर इस विनम्रता और ईष्ट के प्रति दास्य भाव को संचारित कर सकते हैं?स्वयं से प्रश्न करें तो उत्तर नहीं में आएगा। जबकि सच यह है कि ऐसा कर पाना अत्यंत जटिल हो कर भी असंभव नहीं। बस हनुमान जी महाराज जैसे एक परम-सद्गुरु की लेश-मात्र भी कृपा हो जाए तो। जो प्रभु कृपा से ही संभव है। शायद इसीलिए गुरु और ईश्वर को समतुल्य माना गया है।
जय रामजी की। कोटिशः प्रणाम गोस्वामी जी को।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
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